पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२१०

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. . प्रथम सोपान, बालकाण्डे । १५५ परम प्रभु की मानमर्यादा के कारण राजा के मन में सङ्कोच उत्पन्न हुआ.कि स्वामी को पुत्र होने के लिए कैसे कहूँ, इससे श्राप के समान कहना 'नीडा सञ्चारीभाव' है। . चौ-देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले । आपु सरिस खोजउँ कहँ जाई । नृप तव तनय होब मैं आई ॥१॥ रोजा की प्रीति देख कर और उनके अमूल्य वचन सुन कर कृपानिधान भगवान् बोले- हे राजन् ! अपने बराबर कहाँ खोजने जाऊँ, इसलिए मैं ही आ कर तुम्हारा पुत्र हाऊँगा ॥१॥ 'अपने बराबर कहाँ खोजने जाऊँ' इस वाक्य में लक्षणामूलक गूढ़ व्या है कि ब्रह्माण्ड में मेरी बराबरी को कोई नहीं है, इससे मैं पुत्र होऊँगा । सतरूपहि बिलोकि कर जोरे । देबि माँगु बर जो रुचि तारे । जो बर नाथ चतुर नृप माँगा। सोइ कृपाल माहि अति प्रिय लागा॥२॥ शतरूपा को हाथ जोड़े हुए देख कर भगवान बोले-हे देवि! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँगो.। रानी ने कहा-हे नाथ, कृपा के स्थान ! चतुर राजा ने जो वर माँगा; वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा है। प्रभु परन्तु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत-हित तुम्हहिँ सुहाई ॥ तुम्ह ब्रह्मादि-जनक जग खामी । ब्रह्म सकल-उर-अन्तरजामी ॥३॥ परन्तु हे प्रभो । यद्यपि भक्तों का कल्याण करना आप को सुहाता है, तो भी मुझ से षड़ी ढिठाई होती है (क्षमा कीजिए)। श्राप ब्रह्मा श्रादि देवों को उत्पन्न करनेवाले, जगत् के स्वामी, परना और सब के हृदय की बात जाननेवाले हैं ॥३॥ अस समुझत मन संसय होई । कहा जो प्रभु प्रबान पुनि साई ॥ जे निज भगत नाथ तव अहहीं । जो सुख पावहिँ जो गति लहहौं ॥४॥ ऐसा समझते मन में सन्देह होता है, फिर जो स्वामी ने कहा वह निश्चय ही (अवश्य- म्भावी) है । हे नाथ! आपके जो अनन्यभक (खास दास) हैं, वे जो सुख और जो गति पाते हैं ॥४॥ दो०-साइ-सुख साइ-गति साइ-मगति, सोइ निज चरन-सनेहु । सेोइ-बिबेक साइ-रहनि प्रभु, हमहिँ कृपा करि देहु ॥१५॥ हे प्रभो ! वही भुख, वही गति, वही भक्ति, अपने चरणों में स्लेह, वही ज्ञान और वही रीति कृपा कर के हमें दीजिए ॥ १५०॥ चौल-सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बच रचना । कृपासिन्धु बोले मृदु बचना ॥ जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। में सेो दीन्ह सब संसय नाही ॥१॥ सुन्दर, कोमल और अभिमाय-गर्भित वचनों की रचना सुन कर कृपा-सागर हरि मधुर बचन बोले । जो तुम्हारे मन की अभिलाषाएँ हैं, वह सब मैं ने दी, इसमें सन्देह नहीं ॥१॥