पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२११

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१५६ रामचरित-मानसे। मातु बिबेक अलौकिक तोरे । कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मेरे ॥ बन्दि चरन मनु कहेउ बहोरी । अउर एक विनती प्रभु मारी हे माता ! मेरी कृपा से तेरा असाधारण ज्ञान कभी न मिटेगा। मनु ने फिर चरणों में प्रणाम कर के कहा-हे प्रभो ! मेरी एक और प्रार्थना है ॥२॥ सुत-विषयक तव पद-रति होऊ । माहि बड़ मूढ़ कहइ किन कोऊ ॥ मनिबिनुफनिजिमि जल बिनुमीना । ममजीवनतिमितुम्हहिँ अधीना॥३॥ आपके चरणों में मेरी प्रीति पुत्र मान कर हो, चाहे मुझे कोई महामूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और पानी के विना मछली, वैसे मेरा जीना आप के अधीन रहे अर्थात् वियोग दशा में प्राण त्याग दूं ॥ ३ ॥ अस बर माँगि चरन गहि रहेऊ । एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥ अब तुम्ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपति-रजधानी ॥४॥ ऐसा वर माँग कर पाँव पकड़े रहे, करुणानिधान भगवान् ने कहा-ऐसा ही होगा। अब तुम मेरी आज्ञा मान कर इन्द्र की राजधानी (अमरावती पुरी) में बसो ॥४॥ सो-तहँ करि भोग विसाल, सात गये कछु काल पुनि । होइहहु अवध-भुआल, तब मैं होब तुम्हार सुत ॥१५१॥ हे तात! यहाँ बड़ाभोग-विलास कर के फिर कुछ काल बीतने पर आप अयोध्या के राजा होंगे, तब मैं श्राप का पुत्र होऊँगा ॥ १५१ ॥ चौ०-इच्छामय नर-बेष सँवारे । होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे । अंसन्ह सहित देह धरि ताता । करिहउँ चरित भगत-सुख-दाता ॥१॥ अपनी इच्छा से मनुष्य रूप बना कर आप के घर में प्रकट होऊँगा। हे तात! अपने अंशों समेत शरीर धारण कर भक्तों को सुख देनेवाला चरित्र काँगा ॥१॥ मनुजी ने केवल भगवान् को पुत्र होने का वर माँगा; किन्तु परमात्मा ने अपने अंशों के सहित अवतार लेने को कहा, चितचाही बात से अधिक लाभ होना 'द्वितीय प्रहर्षण अलंकार' है। जेहि सुनि सादर नर बड़भागी । भव तरिहहिँ ममता-मद त्यागी॥ आदिसक्ति जेहि जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मारि यह माया ॥२॥ जिसको आदर के साथ सुन कर बड़े भाग्यशाली मनुष्य ममता और मद त्याग कर सुंसार से पार हो जायगे । यह मेरी माया आदिशक्ति (सीता) जिसने जगत् को उत्पन्न किया है, वे भी जन्म लेंगी ॥२॥