पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२१३

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मिचरित-मानस। भाइहि माइंहि परम समीती । सकल दोष छल वरजित प्रीती। जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा । हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥४॥ भाई माई में बड़ी मित्रता थी, (दोनों का परस्पर) प्रेम समस्त दोष और छल से रहित था। राजा सत्यकेतु जेठे पुत्र को राज्य देकर आप भगगन (की अराधना ) के लिए चन को चले गये ॥४॥ दोष-जब प्रताप रबि भयउ नप, फिरी दोहाई देस । प्रजा पाल अति बेद बिंधि, कतहुँ नहीं अघ लेस ॥१५३॥ जव भानुप्रताप राजा हुए-इसकी घोषणा (मुनादी) देश में फिर गई, तब वे वेद की रीति से अधिकतर प्रजापालन करने लगे। कहीं भी पाप का लेश नहीं रह गया । १५३ ॥ चौ०-नूप-हित-कारक सचिव सयाना । नाम धरमरुचि सुक्र समाना । सचिव सयान बन्धु-बल-बीरा । आपु प्रताप-पुञ्ज रनधीरा ॥१॥ मन्त्री का नाम धर्मरुचि था, वह राजा की भलाई करनेवाला शुक्र के समान चतुर था। मन्त्री चतुर, भाई बलवान् शुरवीर और आप प्रताप की राशि रणधीर थे॥१॥ सेन सङ्ग चतुरङ्ग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा सेन बिलोकि राउ हरपाना । अरु बाजे गहगहे निसाना ॥२॥ साथ मैं अपार चतुरङ्गिनी सेनाएँ थीं, उनमें असंख्यों योद्धाएँ सब लड़ाई में जूझने वाले थे। सेना देख कर राजा प्रसन्न हुआ और धूम के साथ नगाड़े बजने लगे ॥२॥ राजा का फ़ौज की ओर निहार कर प्रसन्न होना और सेनापतियों का समझे जाना कि महराज विजय के हेतु प्रस्थान करना चाहते हैं, इस लिए गम्भीर उहा बजने का आदेश करना 'सूक्ष्म अलंकार है। बिजय हेतु कटकई बनाई । सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई । जहें तहँ परी अनेक लराई। जीते सकल भूप बरिआई ॥३॥ जीत के लिए कटक सजा कर और सुन्दर दिन विचार कर राजा डा बजा कर चले । जहाँ तहाँ बहुत सी लड़ाइयाँ पड़ी, सब राजाओं को जोरावरी से जीत लियो ॥३॥ सप्त-दीप भुज-बल बस कीन्हे । लेइ लेइ दंड छाडि नृप दीन्हे । सकल अवनि-मंडल तेहि काला । एक प्रताप-भानु महिपाला ॥१॥ सातो द्वीपों को भुजाओं के बल से वश में कर लिया और दण्ड लेकर राजाओं को छोड़ दिया। उस समय सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डल के एक भानुप्रताप ही सार्वभौम राजा हुए ॥ ४॥