पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२१५

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रामचरित मानस । चौ०-हृदय न कछु फल अनुसन्धाना । भूप विबेको परम सुजाना॥ करइ जे धरम करम मन वानी । वासुदेव अरपित नृप-ज्ञानी ॥१॥ राजा बड़ा समझदार और चतुर था, सत्कर्मों के फल की चाह मन में कुछ नहीं रखता था। कर्म, मन और वचन से जो धर्म फरता, वाह झानी नरेश उन्हें भगवान वासुदेव को अर्पण करता था। चढ़ि बर बाजि बार एक राजा । भृगया कर सब साजि समाजा। बिन्ध्याचल गंभीर बन गयऊ । मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥२॥ पकचार राजा अहेर के सब सामान से सज कर और अच्छे घोड़े पर सवार हो कर विन्ध्याचल के गम्भीर वन में गये; वहाँ बहुत से पवित्र मृगों को मारा ॥२॥ फिरत बिपिन नृप दीख बराहू । जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥ बड़ बिधु नहिँ समात मुख माहीं । मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं ॥३ वन में फिरते हुए राजा ने एक सुश्रर देखा, वह ऐसा मालूम होता था मानो चन्द्रमा को मुख से पकड़ कर राहु जन्गल में छिपा हो । चन्द्रमा बड़े हैं उसके मुंह में अमाते नहीं है, ऐसा जान पड़ता है मानो वह मोधके वश उन्हें उगलता नहीं है ॥शा शुकर और रादु, उसके दाँत (खाँग) और चन्द्रमा परस्पर उपमेय उपमान हैं। राहु का चन्द्रमा को पकड़ कर वन में छिपना अंसिद्ध प्राधार है. क्योंकि दोनों आकाशचारी हैं, थत. बिहारी नहीं । इस अहेतु में हेतु की कल्पना करना कि मानों चन्द्रमा पड़े होने के कारण मुख में समाते नहीं हैं और कोध से वह छोड़ता नहीं है 'असिद्धविषया हेतून्मेक्षा अलंकार' है। कोल कराल दसन छघि गाई । तनु मिसाल पीवर अधिकाई॥ घुरघुरात हय आरव पाये । चकित बिलोकत कान उठाये ॥१॥ यह सुअर के भीषण दाँतों की छवि गाई (कही) है, उसका विशाल शरीर बहुत ही मोटा- ताजा है। घोड़े की आहट पाकर घुरघुराता है और चपका कर कान उठाये हुए (इधर उधर) निहारता है Hen स्थूल पोवरे इत्यमरः' स्थूल को पीवर कहते हैं अर्थात् मांस से लदा हुआ। पिछली चौपाई का अर्थ कोई कोई ऐसा भी करते हैं कि सुअर घुरघुराता था, राजा का घोड़ा उसका. आरव पाकर विस्मय युक्त कान उठाये चाय ओर देख रहा था। दो-नील-महीधर-सिखर सम, देखि बिसाल बराह । चपरि चलेउ हय सुटुकि नप, हाँकि न होइ नियाह ॥१५६॥ नील-पर्वत के शिखर के समान बड़ा भारी सुअर देख कर राजा ने घोड़ा को चाबुक लगा कर तेज़ी से चलाया और ललकारा कि अब तेरा वचाव नहीं हो सकता ॥ १५६ ॥ .