पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२१९

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रामचरितमानस । १६४ दो०-कपट बोरि बानी मृदुल, बोले उ जुगुत्ति समेत । नाम हमार भिखारि अच, निरधन रहित निकेत ॥१६॥ वह युक्ति-पूर्वक छल से मिली हुई कोमल वाणी योला-अब हमारा नाम भिखारी है, विना धन का और घर से हीन हूँ ॥१६०॥ श्लिष्ट शब्दों द्वारा कपट-मुनि ने अपना छिपा वृत्तान्त स्वयम् खोल कर प्रकट कर दिया कि तप ( पहले ) नहीं, अब मैं भिखारी, निर्धन और घरहीन हुआ हूँ। यह 'विवृतोक्ति अलंकार है। चौथ्-कह नृप जे विज्ञान निधाना । तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना । रहहिं अपनपी सदा दुराये । सब विधि कुसल कुवेष बनाये ॥१॥ राजा भानुप्रताप ने कहा-जो आप के समान विज्ञान के स्थान हैं, वे अभिमानसे रहित होते हैं। सदा अपने को छिपाये रहते हैं, बुरा वेश धनाने ही में अपना कुशल समझते हैं ॥१॥ तेहि त कहहिँ सन्त खुति टेरे। परम अकिञ्चन प्रिय हरि केरे ॥ तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरजि सिवहि सन्देहा ॥२॥ इसी से सन्त और वेद पुकार कर कहते हैं कि दीन (धन हीन) हो भगवान को प्रिय हैं। श्राप के समान निर्धन, भिक्षुक और गृह-हीनों पर तो ब्रह्मा और शिव को सन्देह होता है ||२|| ब्रह्मा और शिवजी के सन्देह द्वारा लक्षणा-मूलक गूढ़ व्यह है कि जो दूसरों को धनेश बना देनेवाले, दाताओं के शिरोमणि और वैकुण्ठ-धाम देनेवाले हैं, वे स्वयम् सदा निधन, अमेह तथा मजनों के वेश में रहते हैं। जोसि सेसि तव चरन नमामी । मो पर कृपा करिय अब स्वामी ।। सहज प्रीति भूपति कै देखी । आपु विषय विस्वास बिसेखी ॥३॥ जो हैं, सो हैं, मैं आप के चरणों को नमस्कार करता हूँ, हे स्वामिन् ! अय मुझ पर कृपा कीजिए । राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में अधिक विश्वास देख कर (मन में खूब प्रसन्न हुआ कि निशाना खाली नहीं गया) ॥३॥ सब प्रकार राजहि अपनाई । बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥ सुनु सतिनाउ कहउँ महिपाला । इहाँ बसत बीते बहु काला ॥४॥ सब तरह से राजा को अपने वश में कर के अधिक स्नेह दिखाते हुए वोला-हे राजन् ! सुनो, सत्य सत्य कहता हूँ, यहाँ रहते मुझे बहुत समय बीत गया ॥४॥ दो-अब लगि माहि न मिलेउ कोउ, मैं न जनावउँ काहु लोकमान्यता अनल सम, कर तप-कानन दाहु ॥ अब तक न सुझे कोई मिला और न मैं ने अपने को किसी पर प्रकट किया। संसार की प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, वह तप रूपी वन को जला देती है। कपट-मुनि का ज्ञान, वैराग्यवर्णन करना सत्यन होने कारण 'शान्त रसाभास' है।