पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२२

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भव प्रथम सोपान, बालकाण्ड । चौ०--नाम तुम्हार प्रताप-दिनेसा, सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥ गुरु प्रसाद सब जानिय राजा, कहिय न आपन जानि अकाजा ॥१॥ हे राजन् ! तुम्हारा नाम भानुप्रताप है और सत्यकेतु तुम्हारे पिता हैं । नरनायक ! गुरु की कृपा से सब जानता है, अपनी हानि समझ (ऐसी बाते) कहता नहीं ॥१॥ देखि तात तव सहज सुधाई । प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई । उपजि परी ममता मन मारे। कहउँ कथा निज पूछे तोरे ॥२॥ हे तात! तुम्हारी,खाभाविक सिधाई देख कर और अपने में प्रीति, विश्वास तथा सदा- चार की कुशलता से मेरे मन में प्रीति उत्पन्न हुई, तब तुम्हारे पूछने पर अपना वृत्तान्त कहता हूँ ॥२॥ अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं । माँगु जो भूप भाव मन माहीं ॥ सुनि सुबचन भूपति हरषाना । गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥३॥ मैं प्रसन्न हूँ इसमें सन्देह नहीं, हे राजन् ! जो मन में भावे वह माँगो। इस तरह सुन्दर वचन सुन कर राजा प्रसन्न हुए और पाँव पकड़ कर बहुत तरह से बिनती की ॥ ३ ॥ कृपासिन्धु मुनि दरसन तारे । चारि पदारथ करतल मारे ॥ प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी । माँगि अगम बर हाउँ बिसोकी ॥ हे कृपासिन्धु मुनि! आपके दर्शन से चारों पदार्थ मेरो मुट्ठी में हैं । तो भी स्वामी को प्रसन्न देख कर दुर्लभ वर माँग कर शोकरहित हो जाऊँगा ॥४॥ दो०-जरा-मरन-दुख रहित तनु, समर जितइ जनि कोउ । एक-छत्र रिपु-हीन महि, राज कलप सत होउ ॥ १६४ ॥ बुढ़ाई मृत्यु और दुःख से शरीर रहित हो तथा युद्ध में कोई जीत न सके । अजातशत्रु हो कर एकाधिपत्य के साथ पृथ्वी पर सौ कल्प पर्यन्त मेरा राज्य हो ॥१६॥ चौ०-कह तापस नृप ऐसेइ होऊ । कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥ कालउ तव-पद नाइहि सीसा । एक बिप्र-कुल छाड़ि महीसा ॥१॥ तपस्वी ने कहा-हे राजन् ! ऐसा ही होगा, परन्तु एक कठिनता है उसको भी सुनो । तुम्हारे चरणों में काल भी मस्तक नवावेगा, किन्तु एफ ब्राह्मण का कुल छोड़ कर ॥१॥ तप बल विप्र सदा बरिआरा । तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥ जौँ बिग्रन्ह बस करहु नरेसा । तो तुव बस बिधि बिष्नु महेसा ॥२॥ तप के बल ब्राह्मण सदा से बली हैं, उनके क्रोध से कोई रक्षा नहीं कर सकता। हे राजन् ! यदि तुम ब्राह्मणों को प्रसन्न रो तब तुम्हारे वश में ब्रमा, विष्णु और महेश हो जायेंगे ॥२॥