पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२३

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• सकता ॥३॥ . रामचरित-मानस । चल न ब्रह्म-कुल सन बरिआई । सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई। विप्र साप बिनु सुनु महिपाला । तोर नास नहिँ कवनेहुँ काला ॥३॥ ब्राह्मण के कुल से जोरावरी नहीं चलती, इस बात को दोनों भुजा उठा कर मैं सत्य कहता हूँ ! हे भूपाल ! सुनो, दिना वावण के शाप के तुम्हारा नाश किली काल में नहीं हो श्लिष्ट शब्दों द्वारा गुप्त अर्थ कपट-मुनि प्रकट करता है कि निश्चय हो तुम्हारा ब्राह्मणों के शाप से सर्वनाश होगा। यह 'विवृतोक्ति अलङ्कार' है। हरषेउ राउ बचन सुनि तासू । नाथ न होइ मार अब नासू ॥ तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना । मो कहँ सर्व काल कल्याना ॥४॥ राजा उसकी बात सुन कर प्रसन्न हुए और बोले-हे नाथ ! अब मेरा नाश न होगा। दया के स्थान स्वामिन् ! आपके अनुग्रह से मुझको सदा कल्याण ही है || दो०-एवमस्तु कहि कपट-मुनि, बोला कुटिल बहारि । मिलव-हमार झुलाब-निज, कहहु त हमहिं न खोरि ॥१६॥ ऐसा ही हो कह कर फिर वह दगावाज कपटी-मुनि वोला । हमारा मिलना और अपना भुलाना किसी से कहोगे तो हमारा दोष नहीं ॥१६॥ 'कुटिल' शब्द में लक्षणामूलक गूढ़ व्यङ्ग है । दगाबाज को दगाबाजी की बातें सूमती हैं। कपट-मुनि ने सोचा कि राजा का मन्त्री वड़ा ही चतुर है, यदि राजा इन बातों को उससे कहेगा तो वह तुरन्त जान जायगा, फिर मेरी एक न चलेगी। इससे युक्तिपूर्वक वर्जन करता है। चौ०-ता तँ मैं तोहि बरजउँ राजा । कहे कथा तव परम अकाजा । छठे सवन यह परत कहानी । नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥१॥ हे राजा मैं तुझको इसलिए मना करता हूँ कि इस कथा कहने पर तुम्हारी बहुत बड़ी हानि है । छ कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश होगा, मेरा वचन सत्य है ॥३॥ साधारण अर्थ के सिवाय श्लेष से कपट-मुनि छिपा अर्थ भी खोलकर कहता है कि यह वात जहाँ छठवें ( मेरे मित्र कालकेतु के) कान में पहुँची कि तुम्हारा नाश सत्य ही है। यह 'विवृतोक्ति अलंकार' है। यह प्रगटे अथवा द्विज-सापा । नास तोर सुनु भानुप्रतोपा। आन उपाय निधन तव नाहीं । जौँ हरि हर कोपहिँ मन माहीं ॥२॥ हे भानुप्रताप ! सुनो तुम्हारा नाश इस बात के प्रगट करने अथवा ब्राह्मणों के शाप से हो गा। दूसरे उपाय से तेरा नाश नहीं हो सकता, यदि विष्णु और शिव मन में क्रोध करें तो भी तेरा पार न वाँका होगा ) ॥२॥