पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । सत्य नाथ पद-गहि नृप भाखा । द्विज-गुरु-कोप कहहु को राखा ॥ राखइ गुरु जी कोप बिधाता । गुरु-बिरोध नहिँ कोउ जग त्राता ॥३॥ राजा ने कपटी मुनि के पाँव पकड़ कर कहा-हे नाथ सत्य है, ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से कहिए कौन रक्षा कर सकता है १ के नहीं यदि विधाना क्रोध करें तो गुरु रक्षा करते . हैं, परन्तु गुरु के विरोध से जगत में काई रक्षा करनेवाला नहीं है ॥३॥ पहले द्विज-कोप और गुरु-कोप को समान कहा, फिर गुरु कोप में विशेषता दिखाना 'विशेषक भलङ्कार' है। जौँ न चलब हम कहे तुम्हारे । होउ नास नहिं सोच हमारे ॥ एकहि हर डरपत मन भौरा । प्रभु महिदेव-साप अति घोरा ॥ ४ ॥ यदि मैं श्राप के कथनानुसार न चलूगा तो नाश हो जाय, हमका हमें सोच न है । पर हे प्रभो ! एक ही डर से मेरा मन डरता है कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा ही भीषण है ॥४॥ दो०-होहिं विप्र यस कवनि विधि, कहहु कृपा करि सोउ । तुम्ह तजि दीनदयाल निज, हितू न देखउँ कोउ ॥१६॥ ब्राह्मण किस प्रकार वश में होंगे वह छपा करके कहिए। हे दीनदयाल ! आप को छोड़ कर दूसरे को मैं अपना हितकारी नहीं देखता हूँ ॥१६६॥ चौ०-सुनु नप विविध जतन जग माहीं । कष्टसाध्य पुनि हेहि कि नाहीं॥ अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई ॥१॥ हे राजन् ! सुनो, अनेक उपाय जगत् में हैं और वे कष्टसाध्य हैं, फिर सफलता होगी या नहीं ( ठीक नहीं कहा जा सकता)। एक बड़ा सहल उपाय है, परन्तु उसमें भी एक कठिनती है ॥९॥ मम आधीन जुगुति रूप सेई । मार जाब तव नगर न होई ॥ आजु लगे अरु जब तैं भयऊँ । काहू के गृह ग्राम. न गयऊँ ॥२॥ राजन् ! यह युक्ति मेरे आधीन है और मेग जाना तेरे नगर में न होगा । जब से मैं पैदा दुभा तब से और आज तक किसी के घर या गाँव में नहीं गया हूँ ॥२॥ जौं न जाउँ त होइ अकाजू। बना आई असमजा आजू॥ सुनि महोस बोलेउ बानो । नाथ निगम असि नीति बखानी ॥३॥ यदि नहीं जाता है तो अकाज होता है, आज यह अब इस मा बना है। सुन कर य कोमल वाली से बोले-हे नाथ! वेडो ने ऐसी नीति कहो है ॥३॥