पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२५

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१७० रामचरित मानस! बड़े सनेह लघुनह पर कर हौं । गिरि निज सिरन्हि सदा टन धरहीं। जलधि अगाध मौलि बह फेनू । सन्तत धरनि धरत सिर रेनू ॥१॥ धड़े लोग छोटों परस्नेह करते हैं, पर्वत अपने सिरी (शिखरों) पर सदा घास को धारवं करते हैं। अथाह समुद्र के माथे पर फेन घइता है और धूलि को पृथ्वी निरन्तर अपने सिर पर रखती है ॥४॥ दो०-अस कहि गहे नरेस पद, स्वामी होहु कृपाल । मोहि लागि दुख सहिय प्रभु, सज्जन दीनदयाल ॥ १६७ ॥ ऐसा कह कर राजा ने पाँव पकड़ लिया और बोले-हे स्वामी! कृपा कीजिये । प्रभो ! श्राप सज्जन और दोनों पर दया करनेवाले हैं, मेरे लिए दुःख सहिए ॥१६॥ चौ०-जानि नृपहि आपन आधीना । बोला तापस कपट-प्रथीना । सत्य कहउँ भूपति सुनु ताही । जग नाहिँ न दुर्लभ कछु माही ॥१॥ राजा को अपने अधीन जान कर वह छल में प्रवीण तपस्वी बोला है राजन् ! सुनो, मैं. तुझ से साय कहता हूँ कि जगत् में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है ॥१॥ अवसि काज मैं करिहउँ तारा । मन क्रम बचन भगत मारा । जोग-जुगुति तप मन्त्र प्रभाऊ । फलइ तबहिं जब करिय दुराज ॥२॥ मैं अवश्य ही तेरा कार्य करूँगा, क्योकि तू मन, कर्म और वचन से मेरा भक्त है। योग की युक्ति, तपस्या और मन्त्रों के प्रभाव तभी फलीभूत होते हैं जब छिपाकर किये जाते हैं ॥२॥ जी नरेस मैं करउँ रसोई । तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥ अन्न सो जोइ जाइ भोजन करई । सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥३॥ हे राजन् ! यदि मैं रसोई करूँ और तुम परोसा, पर मुझे कोई न जाने । उस अन्न को 1. जो जो भोजन करेगा, वही वही तुम्हारी श्राशा के अनुसार चलेगा ॥३॥ जैसे उसका रसोई बनाना असत् है, तैसे ब्राह्मणों का वश होना मिथ्या है । असत् से असत् की समता का भावबक 'प्रथम निदर्शना अलंकार' है। पुनि तिन्ह के गृह जेवइँ जोऊ । तव बस होइ भूप सुनु सेऊ ॥ जाइ उपाय रचहु नृप एहू । सम्बत भरि सङ्कलप करेह ॥४॥ फिर उन के घर जो कोई भोजन करेगा, हे राजन् ! सुना, वह मी तुम्हारे वश में हो जायगा। नृपाल ! तुम जा कर यही उपाश करो और साल भर के लिए सहलप करना ॥४॥