पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । १७२ दो-नित नूतन द्विज सहस-सत, बरेहु सहित परिवार । मैं तुम्हरे सङ्कलप लगि, दिनहि करब जेवनार ॥ १८ ॥ नित्य नये कुटुम्ब समेत सौ हजार ब्राह्मणों को निमन्त्रित करना, मैं तुम्हारे सङ्कल्प के लिए दिन में ही भोजन तैयार करूंगा ॥१६॥ चौ०-एहि बिधिभूप कष्ट अति योरे। हाइहहि सकल विप्र बस तारे । करिहहिँ बिप्र होम मख सेवा । तेहि प्रसङ्ग सहजहिँ बस देवा ॥१॥ हे राजन् ! इस प्रकार बहुत थोड़े कष्ट से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जायेंगे। ग्राह्मण यश कर हवन करेंगे, उसके सम्पन्ध से देवता सहज ही अधीन हो जायेंगे ॥१॥ अउर एक तोहि कहउँ लखाऊ । मैं एहि बेषन आउब काऊ । तुम्हरे उपरोहित कहँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया ॥२॥ एक और लखाव तुमसे कहता हूँ कि मैं इस रूप से कभी नश्राऊँगा । राजन् ! तुम्हारे पुरोहित को मैं अपनी माया करके हर ले आऊँगा ॥२॥ तुप बल तेहि करि आपु समाना । रखिहउँ इहाँ धरप परमाना । मैं धरि तासु बेष सुनु राजा । सब विधि तोर सँवारब काजा ॥३॥ तपके बल से उसको अपने समान बना कर यहाँ साल भर तक रखूगा । हे राजन् ! सुना, मैं उसका बेश धारण करके सब तरह तुम्हारा काम ठीक करूँगा ॥३॥ गइ निसि बहुत सयन अब कीजे । मोहि ताहि भूप भेंट दिन तोजे । में तप बल ताहि तुरग समेता। पहुँचइहउँ सोवतहि निकेता ॥४॥ हे राजन् ! रात बहुत बीत गयी अब शयन कीजिए, तीसरे दिन मुझ से भेंट होगी। मैं तगेबल से घोड़े सहित सोतेही में तुम्हें घर पहुँचा दूंगा ॥४॥ दो०-मैं आउब साइ वेष धरि, पहिचानेहु तब माहि । जब एकान्त बोलाइ सब, कथा सुनावउँ तोहि ॥१६॥ मैं वहीं (पुरोहित का) रूप धर कर पाऊगा, जब एकान्त में बुला कर तुम से सब कथा सुबा जाऊँ तब मुझे पहचान लेना ॥१६॥ चौ०-सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छल-ज्ञानी ॥ समित भूप निद्रा अति आई । सो किमि सेाब सोच अधिकाई १२॥ राजा भानुप्रताप प्राक्षा मान कर सो गये और वह छल का ज्ञानी श्रासन पर जा बैठा। राजा थके थे उन्हें गहरी नींद आ गई, परन्तु वह कपटी मुनि, कैसे सोवे ? उसको बड़ा शोक हुआ ॥१॥ कपटी मुनिके मन में शोक स्थायीभाव है कि यदि मित्र न पायो तो सब किया कराया काम चौपट हो जायगा, क्योंकि मैं ने छोड़े सहित सोते ही में राजा के घर पहुँचाने को ,