पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७२ रामचरित मानस । कहा है। यह बात मिथ्या होने पर कलई खुल जायगी ।चिन्ता, उद्वेग, विषाददि सबारी- भावों से उसका उदय भर रहा है। कालकेतु निसिचर तहँ आवा । जेहि सूकर होड नृपहि भुलावा ॥ परम मित्र तापस-नृप-केरा। जान्इ सो अति कपट घनेग ॥२॥ कालकेतु राक्षल वहाँ आया, जिसने सुपर होकर राजा को भुलाया था। वह तपस्वी राजा का परम मित्र और बहुत मना कपट जानता था ॥२॥ तेहि के सत सुत अरु दस भाई । खल अति अजय देव-दुख-दाई ॥ प्रथहिँ भूप समर सब मारे । विप्र सन्त सुर देखि दुखारे ॥३॥ उसके सौ पुत्र और दस भाई जो बड़े दुष्ट और दुर्जय, देवताओं को कष्टानेवाले थे। उनके द्वारा प्रामण, सन्त और देवताओं को दुनी देन कर राजा न पहले ही सब को युद्ध मैं माराथा ॥३॥ तेहि खल पाछिल बयर सँभारा । तापस नृप मिलि मन्त्र विचारा ॥ जेहि रिघु-छय साइश्चेन्हि उपाऊ। भावो बस न जानं कछु राज ॥१॥ उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिल कर सलाह की जिसमें शत्रु का नाश हो वहो उपाय रचा, पर होनहर के वश राजा ने कुछ नहीं जाना mein काल केतु और कपटी मुनि ने राजा भानुप्रताप को ठगने के लिए वापस में सलाह करके यह षड़यम रचा और उसमें इन दोनों को सफलता हुई। दो-रिपु तेजसी अकेल अपि, लघु करि गनिय न ताहु । अजहुँ देत दुख रवि ससिहि, सिर अवसेषित राहु : १७०॥ तेजस्वी शत्रु श्राला भी हो तो उसग छोटा कर के म समझना चाहिए । देवो सिर मान बचा दुधा राहु अब भी सूर्य चन्द्रमाको दुःख देता है ।।१७०॥ चौ०-तापस नूप निज सखहि निहारो। हरपि मिलेउ उठि भघउ सुखारी। मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई ॥१॥ तपस्वी राजा अपने मित्र को देख कर प्रसन्न हो उठा और मिल कर सुखी हुआ । सब कथा कह कर मित्र को सुनाई, वह राक्षस आनन्दित हो कर बोला ॥१॥ अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा । जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥ परिहरि सोच रहहु अब साई । बिनु ओषध बिआधि बिधि खाई म२॥ हे राजन् ! सुनो, जब तुमने मेरे लिखाने के अनुसार काम किया, तो अब मैं ने शत्र, को काबू में कर लिया। सोच त्याग कर अब सो रहो, ब्रह्मा ने विना औषधि के हो रोगको दिया ॥२॥