पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२८

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प्रथम सोपानं, बालकाण्ड । १७६ कुलं समेत रिपु-मूल बहाई । चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥ तापस-नृपहि बहुत परितोषो। चला महा कपटी अति रोषो ॥३॥ मैं कुल सहित शत्रु को जड़ से नाश कर के चौथे दिन आ कर मिलूँगा। तपस्वी राजा को बहुत समझा-बुझा कर वह बड़ा कपटी और अत्यन्त क्रोधी (राक्षस ) चला ॥३॥ भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचायेसि छन माँ निकेता । नृपहि नारि पहिँ सयन कराई । हय-गृह बाँधेसि बाजि बनाई ॥ १ ॥ राजा भानुप्रताप को घोड़े के सहित क्षणमात्र में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास शयन करा कर घोड़े को उसने घुड़साल में ठीक तरह से नाँध दिया ॥४॥ दो-राजा के उपरोहितहि, हरि लेइ गयड बहोरि । लेइ राखेसि गिरि खोह महँ, मायो करि मति भारि ॥ १७१ ॥ फिर राजा के पुरोहित को हर ले गया, माया से उसकी बुद्धि अचेत कर के ले जा कर पहाड़ की गुफा में रख दिया ॥ १७१ ॥ उस प्राह्मण के लिए राजपुरोहित होना ही दोष का कारण है, यदि वह राजपुरोहित न होता तो काहे को पागल बना कर पर्वत की कन्दरा में कैद किया जाता। चो०- -आपु बिरचि उपरोहित रूपा । परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥ जागेउ नूप अनभये बिहाना । देखि भवन बड़े अचरज माना ॥१॥ आप उपरोहित का रूप बनाकर उसकी अपूर्व शय्या पर जाकर पड़ रहा । सवेरा होने के पहले ही राजा जगे और महल देख कर बड़ा आश्चर्य माना ॥१॥ मुनि महिमा मन मह अनुमानी । उठेउ गँवहिँ जेहि जान न रानी ॥ कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहो । पुर नर नारि न जानेउ केहो ॥२॥ मन मैं मुनि की महिमा विचार कर धीरे से उठे, जिसमें रानी न जाने। उसी घोड़े पर चढ़ कर वन को चले गये, नगर के स्त्री-पुरुषों में से किसी ने नहीं जाना ॥२॥ सोते हुए घर आ जाना, इस बात को छिपाने के लिये राजा भानुप्रताप रात ही में चुपके से उठे और लोगों की निगाह रचाकर बन में गये फिर प्रहर दिन चहनेपर लौट आये 'युक्ति अलङ्कार' है। बाज गये जाम जुग भूपति आवा । घर घर उत्सव बघावा. उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा ॥३॥ दो प्रहर (एक प्रहर रात्रि का और एक प्रहर दिन) बीतने पर राजा आये, घर घर मङ्गलाचार और वधाई के बाजे बजने लगे। जब राजाने पुरोहित को देखा तब उस कार्य का इमरण कर श्राश्चर्य से उसकी ओर निहारने लगे ॥३॥