पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२३३

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बारे ॥२॥ रामचरित मानस । १७६ चौ० कीन्ह विविध तप तीनिउँ भाई। परम उन नहिं बरनि से। जाई । गयउ निकट तप देखि बिधाता। माँगहु बर प्रसन्न मैं ताना ॥१॥ तीनों भाइयों ने अतिशय उत्कट अनेक प्रकार की तपस्याएँ की, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। उनकी तपस्या देख कर ब्रह्माजी समीप गये और बोले-हे तात! मैं प्रसन्न हूँ। वर माँगो करि बिनती पद गहि दससीसा । पाठेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥ हम काहू के महिँ न मारे । बानर मनुज जाति रावण ने पाँध पकड़ कर विनती की और बोला-हे जगदीश्वर ! मेरी बात सुनिए । पानर और मनुष्य इन दोनों जातियों को छोड़ कर हम किसी के मारने से मरें ॥२॥ रावण तो यह मांगना चाहता था कि हम किपी के मारे न मरे, पर भावो की प्रेरणा से यह भी निकल पड़ा कि मनुष्य तथा बन्दर जाति छोड़ कर । एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा । मैं ब्रह्मा मिलि तेहि बर दीन्हा । पुनि मनु कुम्भकरन पहिँ गयऊ । तेहि बिलोकि मन घिसमय भयऊ ॥३॥ शिवजी कहते हैं-हे पार्वती ! मैं और बह्माजी ने मिल कर उसको वर दिया कि तुमने बड़ा तप किया, ऐसा ही हो। फिर वे कुम्भकर्ण के पास गये और उसको देख कर मन में श्राश्चर्य हुआ Man जौँ एहि खल नित करब अहारू । होइहि सत्र उजार .संसारू॥ तासु मति फेरी । माँगेसि नींद मास षट केगे ॥४॥ ब्रह्माजी विचारने लगे कि यदि यह दुम्ट नित्य भोजन करेगा तो सारा संसार उजाड़ हो जायगा । सरस्वती की प्राज्ञा दे कर उसको बुद्धि वदल दो, उसने छः महीने की नौद का घर मांगा ॥ वास्तव में कुम्भकर्ण की इच्छा थी कि मैं ऐसा वर मायूँ जिसमें एक दिन साऊँ और छ: महीने जागता रहूँ। परन्तु सरस्वती की प्रेरणा से छः मास नोंद और एक दिन जागने का घर माँग लिया। दो-गये बिभीषन पास पुनि, कहेउ पुत्र घर माँगु । तेहि माँगेउ भगवन्त पद, कमल अमल अनुरागु ॥ १७ ॥ फिर विभीषण के पास जाकर कहा-हे पुत्र ! वर माँगी। उसने ईश्वर के चरण-कमलों में निर्मल प्रेम माँगा ॥१७७॥ चौ०--तिन्हहिं देइ बर ब्रह्म सिधाये । हरषित ते अपने गृह आये ॥ मय-तनुजा मन्दोदार नामा । परम-सुन्दरी नारि-ललामा ॥१॥ उन्हें वर देकर ब्रह्माजी चले गये और वे (तीनों बन्धु ) प्रसन्न हो कर अपने घर आये। मरदैत्य की कन्या जिसका नाम मन्दोदरी था और अत्यन्त सुन्दर रूपवती स्त्री यो॥ १॥ सारद प्रेरि