पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२३५

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रामचरित मानस । १८० दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई । सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई । देखि बिकट भट बड़ि कटकाई । जच्छ जीव लेइ गयउ पराई ॥२॥ रावण ने कहीं यह हाल सुन पाया, उसने फौज सजा कर किले को जा घेरा। विकट योद्धाओं की बड़ी सेना देख कर यक्ष (कुवेर के अनुयायी मय कुवेर के) जो ले कर भाग गये ॥२॥ फिरि सब नगर दसानन देखा । गयउ सोच सुख भयउ बिसेखा । सुन्दर सहज अगम अनुमानी । कीन्ह तहाँ रावन रजधानी ॥ ३॥ रावण ने सब नगर धूम कर देखा, उसका सोच चला गया और बहुत ही सुखी हुआ। स्वाभाविक सुन्दर और दुर्गम विचार कर वहाँ रावण ने राजधानी बनाई ॥३॥ मगर देख कर रावण के मन में जो अपने और कुटुम्पियों के लिए योग्य स्थान न मिलने का शक था वह शान्त हो गया. क्योंकि सुविधाजनक इच्छानुकूल स्थान प्राप्त होने से हर्ष का उदय हुआ। यह 'भावशान्ति' है। जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे । सुखो सकल रजनीचर कीन्हे ॥ एक बार कुबेर पर धावा । पुष्पक जानि जोति लेइ आवा ॥ १ ॥ जो जिन योग्य थे उनको वैसा घर चाँट कर सघ रात को सुखी किया। एक बार कुरेर पर चढ़ दौड़ा और पुष्पक विमान जीत कर ले आया ॥४॥ दो-कौतुकहो कैलास पुनि, लीन्हेसि जाइ उठाइ । मनहुँ तौलि निज बाहु बल, चना बहुन सुख पाइ ॥ १७६ ॥ फिर खेल ही में जा कर कैलास को उठा लिया, मानों अपनी भुजाओं का पल तौल कर बहुत प्रसन्न हो कर चला ॥१७॥ किसी वस्तु का प्रमाण जानने के लिए उसे तैलिना सिद्ध प्राधार है, किन्तु कैलास पर्वत तराजू नहीं है जिस पर भुजाओं का बल तोला जा सके। इस अहेतु में हेतु की कल्पना करना 'सिद्धविषया हेतूरपेक्षा अलंकार' है। चौ०--सुख सम्पति सुत सेन सहाई । जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥ नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रति लास लाभ अधिकाई॥१॥ सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, विजय, प्रताप, बत्त, बुद्धि औरबड़ाई सब नित्य नई नई बढ़ती जाती हैं, जैसे लाभ से लेोम अधिक होता जाता है ॥१॥ अति बल कुम्भकरन असधाता । जेहि कहँ नहिँ प्रतिभट जग जाता ॥ करइ पान सोवइ पद मासा । जागत होइ तिहूँ-पुर त्रासा ॥२॥ अत्यन्त बलवान् कुम्भकर्ण ऐसा भाई, जिसके जोड़ का दुनिया में कोई शूरवीर ही नहीं है, मदिप पी कर छ: महीने सेाता है, उसके जागने पर तीनों लोकों में भय था जाता है ॥२॥ ।