पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२३९

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१४ रामचरित मानस । सुभ-आचरन कतहुँ नहिं होई । देव विप्र गुरु मान न कोई। नहि हरिभगति जन जप दाना । सपनेहुँ सुनिय न बेद पुराना ॥१॥ कहीं भी शुभ आचार (शास्त्र शिक्षित सत्कर्म नहीं होने पाता और म कोई देवता, गुरु, ब्राह्मण को मानता है । हरिभक्ति, यक्ष, तप और दान नहीं होने पाते हैं, स्वप्न में भी वेद-पुराण नहीं सुनाई पड़ता है ॥ ॥ चवपैया-छन्द । जप जोग बिरागा, तप मख-मागा, सवन सुनइ दससीसा । आपुन उठि धावै, रहइ न पावै, धरि सब घालइ खीसा । अस भ्रष्ट अचारा, ना संसारा, धरम सुनिय नहिँ काना । तेहि बिधि त्रास, देस निकासै, जो कह घेद-पुराना ॥१॥ जप, योग, वैराग्य. तप और यज्ञ का भाग जब रावण कान से सुनता है तब स्वयम् उठ कर दौड़ता, वह रहने नहीं पाता सब को पकड़ कर नाश कर देता है। संसार में ऐसा भ्रष्टा-- चार हुआ कि धर्म कान से नहीं सुनाई पड़ता है। उसको बहुत तरह से भयभीत करता और देश निकाले का दण्ड देता है, जो वेदपुराण कहता है ( भयकर दमन नीति से प्रजा-पीड़न करता है | सो-बरनि न जाइ अनीति, घोर निसाचर जो करहिं । हिंसा पर अति प्रोति, तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥ १३ ॥ जो भीषण अन्याय राक्षस करते हैं, वह वर्णन नहीं करते बनता। जिनकी हत्या पर बड़ी प्रीति है. उनके पारी का कौन ठिकाना है ? ( कोई हद नहीं .) ॥१३॥ एक हिंसा-कर्म में सभी छोटे बड़े पापों का वर्णन 'द्वितीय पर्याय अलंकार' है। चौ०--बाढ़े खल बहु चार जुआरा । जे लम्पट पर-धन पर-दारा ॥ मानहिँ मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिँ सेवा ॥१॥ बहुन से दुष्ट, चोर और जुबारी बढ़े जो पर धनहारी तथा पराई स्त्री से व्यभिचार करने. वाले हैं । जो माता-पिताएवम् देवना को नहीं मानते हैं और साधुओं से टहल करवाते हैं ॥१॥ अत्यावारी राजा के राज्य में दुष्ट, कुकर्मा, जुमारी, चोर और बदमाशों की वृद्धि वर्णन कारण के समान कार्य का होना 'द्वितीय सम अलंकार है। जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानहु निसिचर सम प्रानी ॥ अतिसय देखि धरम कै हानी। परम सभोत धरा अकुलानी ॥२॥ शिवजी कहते हैं-हे भवानी ! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन प्राणियों को राक्षस के समान ही समझो । धर्म की अतिशय हानि देख कर वसुन्धरा (पृथ्वी ) भय से बहुत ही. घबरा गई ॥२॥