पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२४१

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r रामचरित मानस । जाके हृदय भगति जसि प्रीती । प्रभु तह प्रगट सदा तेहि रीती॥ तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ । अवसर पाइ बचन एक कहेॐ ॥२॥ जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है प्रभु की सदा से यह रीति है कि उसके लिए वहीं प्रकट होते हैं। शिवजी कहते हैं-हे पार्वती | उस समाज में मैं भी था अवसर पाकर एक बात मैं ने कही ॥२॥ हरि ब्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट हाहि मैं जानी ॥ देस काल दिसि विदिसहु माहीं । कहहु से कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥३॥ भगवान् तो सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, मैं जानता हूँ वे प्रेम से प्रकट होते हैं। देश, काल, दिशा और विदिशा में वह कौन सी जगह है जहाँ परमात्मा नहीं हैं ॥३॥ अग-जग-मय सब रहित बिरागी। प्रेम प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥ भोर बचन सत्र के मन माना । साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥a जड़ चेतन मय और सब से अलग निर्लेप परमात्मा प्रेम से ऐसे प्रकट होते हैं जैसे अमि। मेरी बात सब के मन में भाई और ब्रह्माजी ने सत्य है, सत्य है, कह कर बड़ाई को ॥॥ दो-सुनि बिरच्चि मन हरषि तन,-पुलकि नयन बह नीर । अस्तुति करत जारि कर, सावधान भति-धीर ॥१८॥ सुन कर ब्रह्माजी मन में प्रसन्न हुए, उनके शरीर की रोमालियाँ खड़ी हो गई और नेत्रा से जल बहने लगा। धीर-बुद्धि चतुरानन सावधान हो हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगे ॥१५॥ चवपैया-छन्द। जय जय सुर-नायक, जन सुख-दायक, प्रनतपाल भगवन्ता। गो-द्विज-हितकारी, जय असुरारी, सिन्धु-सुता प्रिय कन्ता । पालन सुर धरनी, अदभुत-करनी, मरम न जानइ कोई। दीनदयाला, करहु अनुग्रह साई ॥३॥ हे देवताओं के स्वामी, भक्तों को सुख देनेवाले, शरणागतों के रक्षक भगवान ! आप की जय हो, जय हे।। हे गौ नाह्मण के कल्याण कर्ता, दैत्यों के वैरी, सिन्धु-तनया (लक्ष्मी) के प्यारे पति ! आप की जय हो । देवता और धरती के पालक, अद्भुत कर्मवाले, जिनके भेद को कोई नहीं जानता जो सहज कृपालु और दोनों पर दया करनेवाले, वे ही स्वामी मुझ पर कृया करें ॥३॥ जो सहज कृपाला, .