पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२४२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । १८७ जय जय अबिनासी, सन घट बासी, व्यापक परमानन्दा । अबिगत गातोतं, चरित पुनीतं, माया रहित मकुन्दा ॥ जेहि लागि बिरागी, अति अनुरागी, विगत माह मुनिन्दा । निसिबासर ध्यावहि, गुन गन गावहि, जयति सच्चिदानन्दा ॥४॥ हे अक्षय, सब के हृदय में बसनेवाले व्यापक और परम आनन्द के रूप, श्राप की जय हो, जय हो । भाप अनिर्वचनीय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित और मौत देने- वाले हैं। जिसके लिए मोह त्याग कर वैराग्यवान मुनि लोग अत्यन्त प्रेमी होकर रात-दिन ध्यान करते और गुण-गण गाते हैं, उन सच्चिदानन्द (परब्रह्म) को जय हो ॥३॥ जेहि सृष्टि उपाई, त्रिविधि बनाई, सङ्ग सहाय न दूजा। से। करउ अघारी, चिन्त हमारी, जानिय भगति न पूजा ॥ जो भव-भय अउजन, मुनि-मन रज्जन, गञ्जन बिपति बरूयो । मन बच क्रम बानी, छाड़ि सयानी, सरन सकल-सुर-जूथा ॥५॥ जिसने सृष्टि का विधान तीन प्रकार (उत्पत्ति, पालन और संहार ) ले शिना दुसरे के साथ और सहायता के बनाया, वे पाप के 2ी स्वामिन् ! हमारी ओर ध्यान दें, मैं भक्ति और उपासना करना नहीं जानता। जो संसार के भय को चूर चूर करते हैं, मुनियों के मन को आनन्द देनेवाले और विपति-जाज के नसानेगले हैं। मन, बचन और कम से सम्पू- र्ण देवता-वृन्द च नुराई की बानि (प्रादत) छोड़ कर आप की शरण आये हैं ॥३॥ सारद सुति सेषा, रिषय असेषो, जा कह कोउ नहिं जाना। जेहि दीन पियारे, बेद पुकारे, द्रवउ से नीम गवाना ॥ भव-बारिधि-मन्दर, सब निधि सुन्दर, गुन मन्दिर सुख-पुजा । मुनि सिद्ध सकल सुर, परम भयातुर, नमत नाथ-पद-मज्जा ॥६॥ सरस्वती, वेद, शेष श्रार असंख्यों ऋषिवर जिनको कोई नहीं जानते, जिन्हें दीनदयालु वेद पुकारते हैं वे श्रीभगवान् मुझ पर प्रसन्न हैं । जो संसार रूपी समुद्र मधने के लिए मन्दर-पर्वत हैं, सब प्रकार सुन्दर गुणों के मन्दिर और सुख की राशि हैं। सम्पूर्ण देवता, सिद्ध और मुनि अतिशय भय-विहल होकर उन स्वामी के चरणकमले को नमस्कार करते हैं ॥३॥ दे-जानि सभय सुर-भूमि सुनि, बचन समेत सनेह । गगन-गिरा गम्भीर भइ, हरनि सोक-सन्देह ॥१८॥ देवता और पृथ्वी को भयभीत जान कर और स्नेहसहित ब्रह्माजी के वचन सुन कर, शोक-सन्देह को हरनेवालो गम्भीर आकाशवाणी हुई ॥१६॥