पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२४५

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रामचरित मानस । दे०-कासल्यादि नारि प्रिय, सब आचरन पुनीत । पति अनुकूल प्रेम दृढ़, हरि-पद-कमल विनीत ॥ १८८ ॥ कौशल्या श्रादि उनकी प्यारी सब स्त्रियाँ पवित्र आवरणवाली, पति की पात्रा में नम्रता. पूर्वक तत्पर और भगवान के चरण-कमलों में स्थायी प्रेम रखती थीं ॥१॥ चौ०-एक बार भूपति मनमाहीं । भइ गलानि मारे सुत नाहीं ॥ गुरु गृह गयउ तुरत महिपाला । चरन लागि करि विनय विसाला ॥१॥ एक बार राजा के मन में ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है । राजा तुरन्त गुरु के घर गये और पाँव पकड़ कर बड़ी प्रार्थना की ॥१॥ इतने साम्राज्य का भोगनेवाला कोई नहीं, यिना पुत्र के सप व्यर्थ है। यह सोच कर मन में सन्ताप होना 'ग्लानि सञ्चारीमा' है। निज दुख सुख सब गुरुहि सुनायो। कहिबसिष्ठ बहु विधि समझायो । धरह धीर होइहि सुत-चारी। त्रिभुवन-विदित भगत-भय-हारो॥२॥ अपना दुःखसुख सब गुरुजी को सुनाया, वशिष्ठ जी ने बहुत तरह से कह कर सम. झाया कि धीरज धरिए, आप के चार पुत्र तीनों लोक में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरनेवाले होंगे२॥ इच्छा से राजा गुरु के पास गये, वहाँ चार पुत्रों का वर पाना अर्थात् चित चाही वात से अधिक अर्थ सिद्ध होना द्वितीय प्रहर्पण अलंकार' है। सृङ्गी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा । पुत्रकाम सुन जग्य करावा ॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हे। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हे ॥३॥ वशिष्ठजी ने शृङ्गीऋपि को दुलवाया और कल्याण के लिए पुत्र-कामेष्टि या कराया। मुनि ने भक्ति के सहित पाहुनि दी, ( मन्त्र पढ़ कर दृश्य को अग्नि में हवन करना) अग्नि देव हाथ में हविष्यान लिये प्रकट हुए ॥३॥ जो वसिष्ठ कछु हृदय विचारा । सकल काज भा सिद्ध तुम्हारा ॥ यह हलि बाँदि देहु नृप जाई । यथा जोग जेहि भाग बनाई ॥४॥ उन्होंने कहा-हे राजन् ! वशिष्ठजी ने जो कुछ मन में विचारा है, बार का यह समूर्ण कार्य सिद्ध हो गया। यह हव्यान्न ले जाकर और यथायोग्य (चार) भाग बना कर रानियों को वाँट दीजिए ॥३॥ दो-तब अदृस्य भये पावक, सकल सभहि समुझाइ। परमानन्द मगन नृप, हरष न हृदय समाइ ॥ १८ ॥ 'सारी सभा को समझा कर तय अग्निदेव अन्तर्धान हो गये । राजा परम आनन्द मैं मग्न हुए, उनके हृदय में हर्ष प्रमाता नहीं (बाहर को उमड़ा पड़ता) है ॥१६॥