पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२५३

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रामचरित मानस । करि पूजा भूपति अस भाखा । धरिय नाम जो मुनि गुनि राखा ॥ के नाम अनेक अनूपा। मैं इन्ह नप कहब स्त्रमति अनुरूपा. ॥२॥ राजा ने पूजन कर के यह कहा कि हे मुनि जो आप मन में सोच रक्खे हैं वह माम धरिए । गुरुजी बोले-हे राजन् ! इनके बहुत से अनुपम नाम हैं तो भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूंगा ॥२॥ जो आनन्द-सिन्धु सुख-रासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी । सो सुख-धाम राम अस नामा। अखिल-लोक दायक विखामा ॥३॥ जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (प्रानन्द-सागर) के अत्यल्प विन्दुमात्र से तीनों लोक सुखी है, वे सम्पूर्ण लोकों के मानन्द देनेवाले सुख के धाम इनका 'राम' ऐसा नाम है। बिस्व-भरन-पोषन कर जोई। ता कर नाम भरत अस होई॥ जा के सुमिरन त रिपु-नासा । नाम सत्रुहन बेद प्रकासा ॥४॥ जो संसार का पालन पोषण करते हैं, उनका 'भरत' ऐसा नाम होगा। जिनके स्मरण से शत्रु का नाश होता है, वेदों में प्रसिद्ध इनका 'शत्रुहन' नाम है ॥४॥ प्रत्येक नामों का अर्थ जो गुरुजी ने किया वह स्वयम् सिद्ध है, पुनः उसका विधान करमा 'विधि अलंकार' है। दो०-लच्छनधाम राम-प्रिय, सकल जगत आधार । गुरु बसिष्ठ तेहि राखा, लछिमन नाम उदार ॥१९॥ जो (शुभ लक्षणों के धाम, रामचन्द्रजी के प्यारे और सम्पूर्ण जगत् के आधार है, गुरु वशिष्ठजी ने उनका श्रेष्ठ नाम 'लक्षमण रक्खा ||१७|| शका-नामकरण में क्रमशः रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुहन न कह कर शत्रुहन का पहले और लक्ष्मण का पीछे नाम रक्खा गया, इसका क्या कारण है ? उत्तर-रामवापिनी उपनिषद् में विश्व, तेजस, प्राश और ब्रह्म ये चार विभु गिनाये है। उनमें परिवर्तित रूप लक्ष्मण, शत्रुहन, भरत और रामचन्द्रजी हैं। गुरुजी ने इस क्रम को उलट कर ब्रह्म, प्राड, तेजस और विश्व का क्रम लेकर नामकरण किया है । चन्दन पाठक ने तो कई कारण गिनाया है। प्रयागनिवासी पण्डित रामवास पाँड़े लिखते हैं कि राम में विश्व को विनाम देना, भरत में पोषण करना, शत्रुहन में शत्र से रक्षा करना एक एक लक्षण हैं, किन्तु लक्ष्मण जी उन तीनो लक्षणों से युक्त होने के अतिरिक जगत् के अाधार कप हैं, इसलिए उनका नाम आधार स्वरूप मान कर पीछे रक्खा गया है। चौ०-धरे नाम गुरु हृदय बिचारी । बेद-तत्व नृप तव सुत चारी ॥ मुनि-धन जन-सरबस सिव-प्राना । बाल केलि-रस-तेहि सुख माना" गुरुजी ने मन में विचार कर नाम धरे और कहा-दे राजन् ! श्राप के चारों पुत्र घेर है