पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२५७

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. 7 शामचरित-मान २०२ करि पूजा नैवेद चढ़ावा । आपु गई जहँ पाक बनावा ॥ बहुरि मातु तहवाँ चलि आई । भोजन करत देख सुत जाई॥२॥ पूजा कर के नैवेद्य चढ़ाया और आप जहाँ पाक बनाया था वहाँ गई फिर माता यहाँ (पूजन स्थान में) चल कर आई, देखा कि बालक रामचन्द्रजी जा कर भोजन करते हैं॥२॥ गह जननी सिसु पहिँ भयभीता । देखा बाल तहाँ पुनि सूता ॥ बहुरि आइ देखा सुत साई । हृदय कम्प मन धीर न होई ॥३॥ माताजी भयभीत हो बालक के पास गई, फिर वहाँ पुत्र को सोते हुए देखा। पुनः आ फर उन्हीं चालक को (भोजन करते) देखा, हदय काँपने लगा; मन में धीरज नहीं होता है ॥३॥ एक वालक रामचन्द्र को पालने में पौढ़े और पूजास्थल में भोजन करते वर्णन करना 'तृतीय विशेष अलंकार' है। इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा । मति भ्रम मार कि आन बिसेखा ॥ देखि राम्न जननी अकुलानी । प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुतुकानी ॥४॥ यहाँ वहाँ दो बालक देखा इससे मन में विचारने लगी कि मेरी बुद्धि में भ्रान्ति हुई है या और ही विशेष कारण है । प्रभु रामचन्द्रजी ने माता को घबराई हुई देख कर मन्द मुसक्यान से हँस दिया ॥४॥ दो०-देखरावा मोतहि निज, अदभुत रूप अखंड । रोम रोम प्रति लोगे, कोटि कोटि ब्रांड ॥ २० ॥ माता को अपना विलक्षण अविच्छिन्न रूप दिखलाया, एक एक रोम में करोड़ों करोड़ो ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं ॥ २०१॥ कोटि ब्रह्माण्ड को प्रत्येक रोमों में लगे रहना कथन अर्थात् बड़े आधेय को लघु श्राधार में रखना 'द्वितीय अधिक अलंकार है । अलंकारमनुषाके रचयिता लाला भगवानदीन इस दोहे में अल्पालंकार दिखाया है, किन्तु यह तो तब होता जव अत्यन्त सूक्ष्म आधेय की अपेक्षा आधार की अति सूक्ष्मता वर्णन की जाती। चौ०-अगनितरविससिसिवचतुरानन।बहुगिरिसरितसिन्धुमहिकानन। काल करम गुन ज्ञान सुभाऊ । सोउ देखा जो सुना न काज ॥१॥ असंख्यौ सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा और बहुत से पर्वत, नदी, समुद्र, धरती, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान, स्वभाव तथा जो कभी नहीं सुना था यह भी देखा ॥१॥ देखी माया लब बिधि गाढ़ी अति समीत जोरे कर ठाढ़ी । देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ. ताही ॥२ सब प्रकार गहरी माया को देखा जो बहुत डरती हुई हाथ जोड़े खड़ी है। उन जीवों को देखा जिन्हें माया नाच नचाती है और उस भक्ति को देखा जो उसके फन्दे से जीव को) छोड़ती है ॥२॥