पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

धूसर धूरि भरे रामचरित-मानसी २०४ मन-क्रम-बचन अगोचर जाई । दसरथ-अजिर बिचर प्रभु सोई॥ भोजन करत बाल जब राजा । नहिँ आवत तजि बाल-समाजा॥३॥ मन, कर्म और वचन से जो ईश्वर प्रकट है, वे ही दशरथजी के आँगन में विचरते हैं। भोजन करते समय जब राजा बुलाते हैं, तव चालक-मण्डली को छोड़ कर नहीं आते ॥३॥ कौसल्या जब बोलन जाई । ठुमक ठुमुक प्रभु चलहिँ पराई । निगम नेति सिव अन्त न पावा । ताहि धरइ जननी हठि धावा ॥४॥ जब कौशल्याजी बुलाने जाती हैं, तभ प्रभु रामचन्द्रजी ठुमुक अमुक कर भाग चलते हैं। जिनका अन्त शिवजी नहीं पाते और वेद इति नहीं कहते हैं उनको माता हठ से दौड़ कर पकड़ लेती हैं ॥४॥ गुटका में 'मन क्रम वचन अगोचर जोई । दशरथ अजिर विचर प्रभु सोई, यह चौपाई 'कौसल्या जप योलन जाई' के नीचे है। तनु आये । भूपति बिहँसि गोद बैठाये ॥५॥ भटीले शरीर धूल से भरे हुए आए, राजा ने हँस कर गोद में बैठा लिया ॥५॥ दो-भोजन करत चपल चित, इत उत अवसर पाइ। भाजि चले किलकत मुख, दधि-ओदन लपटाइ ॥२०३॥ भोजन करते हैं पर चञ्चल चित्त से इधर उधर देखते हैं, मौका पाते ही मुँह में वही भात लिपटाये किलकारी मार कर भाग चलते हैं ॥२०३॥ चौ०-बालचरित अति सरल सुहाये । सारद सेष सम्भु सुति गोये ॥ जिन्ह कर मन इन्ह सन नहि राता । ते जन बञ्चित किये बिधाता ॥१॥ अतिशय उदार सुहावनी बोललीला को सरस्वती, शेष, शिवजी और वेदों ने गाया है। जिनका मन इनसे नहीं लगा, उन मनुष्यों से ब्रह्मा ने उगहारी की ॥१॥ भये कुमार जबहिँ सब भ्राता । दीन्ह जनेऊ गुरु-पितु-माता॥ गुरु गृह गये पढ़न रघुराई । अलप काल बिद्या सब आई ॥२॥ जब सब भाई पाँच वर्ष के हुए, तव गुरु और माता-पिता ने यज्ञोपवीत-संस्कार किया। फिर रघुनाथजी गुरु के मन्दिर में विद्या पढ़ने गये, थोड़े ही काल में सब विद्या प्रा गई ॥२॥ जाकी सहज स्वास खुति चारी । सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी ॥ विद्या-बिनय निपुन गुन-सीला । खेलहिं खेल सकल नृप-लीला ॥३॥ चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास है, वे ईश्वर पढ़ते हैं। यह बड़ा कुतूहल है। विद्या, वहार-कुशलता, गुण और शील में कुशल सम्पूर्ण राजाओं की लीला का खेल खेलते हैं ॥३॥