पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२६४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २०६ अपने पिता होने का निषेध करके यह धर्म विश्वामित्र में स्थापन करना 'पर्वता. पहुति अलंकार' है। दो०-सौंपे भूप रिषिहि सुत, बहु बिधि देइ असीस । जननी भवन गये प्रभु, चले नाइ पद सीस । राजा ने पुत्रों को बहुत तरह से आशीर्वाद देकर मुनि को सौंप दिया । प्रभु रामचन्द्र जी माता के मन्दिर में गये, उनके चरणों में मस्तक नवाकर चले। सो०-पुरुष सिंह दोउ बीर, हरषि चले मुनि भय हरन । कृपासिन्धु मतिधीर, अखिल-बिस्व कारन-करन ॥२०॥ दोनों पीर (राम-लक्षमण) पुरुषों में सिंह प्रसन्न होकर मुनि के भय को हरने के लिए चले । कृपा के समुद्र, धीर-बुद्धि जो सम्पूर्ण जगत् के कारण और कार्य-रूप हैं ॥२०!! चौ० अरुन नयन उर बाहु बिसाला । नील जलद तनु स्याम तमाला ॥ कटि पट पीत कसे बर आथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा ॥१॥ लाल नेव, चौड़ी छाती, विशाल वाहु, नील-मेघ और श्याम तमाल के समान शरीर है। कमर में पीताम्बर से श्रेष्ठ तरकस कसे, दोनों हाथों में सुन्दर धनुष-धाण लिये हुए हैं ॥१॥ स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई ॥ प्रभु ब्रह्मन्य-देव मैं जाना । मोहि हित पिता तजेउ भगवाना ॥२॥ श्यामल गौर सुन्दर दोनों भाइयों को विश्वामित्रजी ने अनन्त-लाभ रूप पाया । मन में सोचते जाते हैं कि मैं जान गया प्रभु रामचन्द्रजी ब्राक्षण ही को देवता मानते हैं, तभी तो मेरे लिए भगवान ने पिता को त्याग दिया!॥२॥ चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई ॥ एकहि बान प्रान हरि लीन्हा । दीन जानि तेहि निज-पद दीन्हा ॥३॥ चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखा दिया, सुनते ही वह क्रोध कर के दौड़ी। एक ही घोण से रामचन्द्रजी ने उसके' प्राण हर लिये और उसे दुखी जान कर अपना पद (वैकुण्ठ बास) दिया ॥३॥ शङ्का-विश्वामित्रजी ने दिखाने के सिवा प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहा, फिर ताड़का ने सुना कैसे ? उत्तर-प्रसानुकल कथाभाग में कहीं प्रश्न से उत्तर का और कहीं, उत्तर से प्रश्न का बोध होता है। यहाँ ताड़का के सुनने ही से कहने का बोध हो रहा है कि मुनि ने ऊँगली से दिखा कर कहा-महा उपद्रवकारिणी ताड़का नामवाली प्रेतिन यही है, इसको मारिये। तभी तो वह सुन कुन हो कर दौड़ी। अथवा रामचन्द्रजी के धनुष टडोर को सुना। ,