पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२६५

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yfo . रामचरितमानस तब रिषिनिज-नाथहि जिय चीन्ही । बिद्यानिधि कहँ बिझा दोन्ही ॥ जा त लाग न छुधा पिपासा । अतुलित-बलतन तेज प्रकामा सब ऋषि ने मन में अपने स्वामी को पहचान लिया और विद्यासागर रामचन्दजी को विधा दी, जिससे भूख प्यास नहीं लगती; किन्तु शरीर में अनन्त बल और तेज प्रकट होता है | दो-आयुध सर्व समर्षि कै, प्रभु निज आलम आनि । कन्द मूल फल भोजन, दोन्ह भगति हित जानि १२०६॥ प्रभु रामचन्द्रजी को अपने आश्रम में लाकर और लब हथियार उन्हें समर्पण कर के भोजन के लिए कन्द, मूल और फल भक्ति के प्रेमी जान कर दिये । २०६ ।। पहले कह पाये हैं कि जिस विद्या से भूख-प्यास नहीं लगती वह दी। फिर यह कहना कि कन्द मूलादि भोजन कराया, पूर्व कथन के विपरीत है। हेतु सूचक बात कह कर समर्थन करना कि रामचन्द्रजो को भक्ति प्यारी है इसलिए भोजन कराया, 'कान्यलिङ्ग अलंका है। चौ-मात कहा मुनि सन रघुराई । निर्भय जज्ञ करहु तुम्ह जाई । होम करन लागे मुनि झारी । आपु रहे मख की रखवारी ॥१॥ सबेरे रघुनाथजी ने मुनि से कहा कि आप जाकर निर्भय यज्ञ कीजिए । मुनि-मण्डली हवन करने लगी और आप यज्ञ की रखवाली में रहे ॥१॥ सुनि मारीच निसाचर काही । लेइ सहाय धावा मुनि-द्रोही। बिनु फर वान राम तेहि मोग । सत जोजन गा सागर पारा ॥२॥ यज्ञारम्भ सुन कर मोधी और मुनिद्रोही राक्षस मारोन सहायकों को लेकर दौड़ा। रामचन्द्र जी ने विना फर के वाण से उसको मारा, वह समुद्र के पार सौ योजन (800 कोस) पर जा गिरा॥२॥ विना फर का वाण अपूर्ण कारण है. उससे पूरा कार्य होनो अर्थात् चार सौ कोस पर मारीच का गिरना 'हितीय विभाधना अलंकार' है । बाण के लगते ही मारीच का समुद्र के पार जा पड़ना, कारण-कार्य साथ ही प्रकट होना 'अक्रमातिशयोक्ति अलंकार' है। दोनों अलं .* का सन्देहसङ्कर है। पावक-सर सुबाहु पुनि जारा । अनुज निसाचर कटक सँघारा ॥ मारि असुर द्विज-निर्भय-कारी। अस्तुति काहि देव-मुनि-मारी ॥३॥ फिर अग्नि-वाण से सुशाहु को भस्म किया, छोटे भाई लक्ष्मण जी ने राक्षसों की सेना का संहार किया राक्षसों को मार कर ब्राह्मणों को निर्मश किया, देवता और सुनिबन्ध सुति करने लगे ॥३॥