पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२६९

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। रामचरित मानस । २१२ अति प्रेम अधीरा, पुलक-सरीरां, मुख नहिँ आवइ, बचन कही। अतिसय बड़भागी, चरनन्हि लागी, जुगल नयन जल,-धार बही ॥२॥ शोक के नाशनेवाले पवित्र चरणों के छूते ही स्वच्छ तप की राशि प्रकट हुई । भक्तों के सुखदाता रघुनाथजी को देखते हुए सामने हाथ जोड़ कर खड़ीरही । अत्यन्त प्रेम में विह्वल होने से शरीर पुलकित हो गया, मुँहसे बात नहीं कही जाती है । वड़ी ही भाग्यवती है,चरणों। में लिपट गयी और दोनों आँखों से आँसुओं की धारा बह चली ॥२॥ ईश्वर विषयक अनुपम प्रेम रतिभाव है। रामचन्द्रजी के दर्शन से रोमाञ्च, स्वरमा अनु श्रादि सात्विक अनुभावों और हर्ष, चपलतादि सञ्चारी भावों द्वारा पूर्णावस्था को प्राप्त हुश्रा है धीरज मन कीन्हा, प्रभु कहँ चीन्हा, रघुपति कृपा 'भगति पाई। अति निर्मल बानी, अस्तुति ठानी, ज्ञान-गम्य जय, रघुराई । मैं नारि अपावन, प्रभु जग-पावन, रावन-रिपु जन,-सुखदाई। राजीव-बिलोचन, भव-भय-मोचन, पाहि पाहि सरनहिं आई ॥३॥ मन में धीरज करके स्वामी को पहचाना और रघुनाथजी की कृपा से भकि पाई। अत्यन्त निर्मल वाणी से स्तुति करने लगी कि हे रघुनाथजी । ज्ञान से जानने योग्य भाप को जय हो; मैं अपाचन स्त्री हूँ और श्राप जगत को पवित्रकरनेवाले हैं, रावण के वैरी तथा भक्तजनों को मानन्द देनेवाले हैं । हे कमल नयन, संसारी भय को छुड़ानेवाले ! आपकी शरण आई है मेरी रक्षा फीजिए, राक्षा कीजिए । मैं अपवित्र व्यभिचारिणी स्त्री हूँ और आप जगत के पावन करनेवाले, यथायोग्य का सज वर्णन 'प्रथम सम अलङ्कार है। मुनि साप जो दीन्हा, अति भल कीन्हा, परम अनुग्रह, मैं माना। देखेउँ भरि लोचन, हरि भव-मोचन, इहइ लाभ सङ्कर जाना॥ बिनती प्रभु मारी, मैं मति भारी, नाथ न बर माँगउँ आना। पद-कमल-परागा, रस अनुरागा, मम मन मधुप करइ पाना ॥४॥ मुनि ने जो शाप दिया यह बहुत ही अच्छा किया, उसको मैं उनकी बड़ी कृपा मानती हुँ। जिससे संसारी भय छुड़ानेवाले भगवान् को मैंने आँस्न भर देखा, इसी. (दर्शन) को शङ्करजी लाम समझते हैं । हे प्रभो ! मैं बुद्धि की भोली हूँ, मेरी यही प्रार्थना है, स्वामिन् ! मैं दूसरा पर नहीं माँगती हूँ। आप के चरण-कमलों की रज के प्रेम रूपी मकरन्द (पुष्प-रस) को मेरा मन रूपी भ्रमर सदा पान करे ॥४॥ गौतम ऋषि के शाप कपी घोष को रामचन्द्रजी के दर्शन के कारण गुण मानमा 'अनुया अलङ्कार' है।