पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२७१

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रामचरित मानसं। २११ तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाये । विविध दान महिलेवन्ह पाये। हरषि चले मुनि-वृन्द-सहाया। बेगि विदेह-नगर नियराया ॥२॥ तब प्रभु रामचन्द्रजी ने ऋषियों सहित गङ्गाजी में स्नान किया और अनेक प्रकार दान ब्राह्मणों को मिले । प्रसन्न होकर मुनि मण्डली के साथ चले, तुरन्त ही जनकपुर के पास पहुँच गये ॥२॥ पुर रज्यता राम जब देखी । हरपे अनुज समेत बिसेखी ॥ बापो कूप सरित सर नाना । सलिल सुधा-सम मनि-सोपाना ॥३॥ जब नगर की रमणीयता रामचन्द्र जी ने अवलोकन किया, तर छोटे भाई के सहित बहुत ही प्रसन्न हुए । असंख्यो बावली, कुएं, सरोवर और नदियां हैं जिनमें मणियों की सीढ़ियाँ बनी हैं तथा अमृत के समान जल भरा है ३॥ गुज्जत मजु मत्त-रस भृङ्गा । कूजत कल बहु बरन बिहङ्गा ॥ घरन बरन विकसे बनजाता । त्रिविधि समीर सदा सुख-दातो nu मकरन्द से मतवाले भ्रमर सुन्दर गुजार करते है और बहुत रङ्ग के मनोहर पक्षी बोत रहे हैं । रङ्ग रन के कमल खिले हैं, सदा सुख देनेवाली (शीतल, मन्द, सुगन्धित) तीनो प्रकार की हवा चलती है ॥४॥ दो०-सुमन बाटिका बाग बन, बिपुल विहङ्ग निवास । फूलत फलत सुपल्लवत, सेहत पुर चहुँ पास ॥२१२॥ फुलवाड़ी, बगीचा और वनों में झुण्ड के झुण्ड पक्षियों का निवास है। वे फूलते फसते हुए सुन्दर पत्तों से लदे नगर के चारों ओर शोभित हो रहे हैं । २१२ ॥ पहले सुमन-वाटिका, बाग और वन कह कर फिर उसी क्रम से फूलना फलना पल्लवित होना कथन अर्थात् फुलवाड़ियाँ फूल रही हैं वाग फल रहे हैं तथा वन के वृक्ष पक्षों से लदे हैं, यह 'यथासंख्य अलंकार है। चौ०-बनइ न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाइ मन तहई लोभाई ॥ चारु बजार विचित्र अँवारी। मनिमय जनु विधि स्त्रकर सेवारी॥१॥ नगर की सुन्दरता कहते नहीं बनती, मन जहाँ जाता है वहीं लुभा जाता है। दोनों ओर मणियों से बना बाज़ार सुन्दर और विलक्षण है, वह ऐसा मालूम होता है मानों ब्रह्मा ने अपने हाथ से सुधार कर बनाया हो ॥१॥ बाजार को शिलाकारों ने बनाया, वह विधाता से निर्मित नहीं है। इस अहेतु में हेतु की कल्पना करना सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है।