पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२७४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २१७ दो-प्रेम मगन मन जानि नृप, करि बिबेक धरि धीर । बोलेउ मुनि-पद नाइ सिर, गदगद गिरा गँभीर ॥२१॥ राजा ने अपने मन को प्रेम में हुया हुश्रा जान शान से धीरज धारण किया । मुनि के चरणों में सिर नवा कर गद्गद होकर गम्भीर वाणी से बोले ॥ २१५ ॥ ची०-कहहुनाथसुन्दरदोउबालक । मुनिकुल-तिलककि नृपकुल-पालक ॥ ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा । उमय बेष धरि की सेाइ आवा ॥१॥ हे नाथ ! कहिये, ये सुन्दर दोने चालक मुनिकुल के भूषण हैं या राजा के वंश के पालनेवाले हैं। जिस ब्रह्म को वेद इति नहीं कह कर गाते है क्या वेही दो रूप धारण करके आये हैं ॥१॥ दोने सुन्दर पालक मुनिकुल के तिलक हैं, या राजकुल के पालक हैं, अथवा उभय वेष धरे प्राप्त है । राजा के मन में किसी एक बात पर निश्चय न होना 'सन्देहालंकार' है। सहज बिराग-रूप मन मारा । थकित होत जिमि चन्द चकोरा ॥ ता ते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥ २ ॥ मेरा मन सहज ही वैराग्य का रूप है, वह इन्हें देख कर कैसे मोहित दुआँ है चन्द्रमा पर चकोर ।हे प्रभो ! इससे मैं सत्यभाव से पूछता हूँ, नाथ ! छिपाच न कर के कहिए ॥२॥ इन्हहिँ बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्म-सुखहि मन त्यागा ॥ कह मुनि बिहँसि कहेहु नप नीका । बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥३॥ इन्हें देखतेही मन अत्यन्त अनुरागी हो कर ब्रह्म-सुख को बरजोरी से त्याग दिया है ? मुनि ने हँस कर कहा-राजन् ! अच्छा कहते हो, तुम्हारी बात झूठ नहीं है। ये प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी । मन मुसुकाहिँ राम सुनि बानी ॥ रघुकुल-मनि दसरथ के जाये । मम हित लागि नरेस पठाये ॥४॥ जहाँ तक प्राणी हैं ये सभी को प्यारे हैं, मुनि की वाणी सुन कर रामचन्द्रजी मन में मुस्कुराते हैं । रघुकुलमणि दशरथजी के पुत्र हैं, मेरे उपकार के लिए राजा ने इन्हें भेजा है ॥४॥ रामचन्द्रजी के मुस्कुराने में ऐश्वर्य न कथन फरने की व्यसनामूलक गूढ़ व्या है। यदि सच्चा भेद विश्वामित्रजी प्रकाश कर देंगे कि 'गवण मरण मनुज कर साँचा । प्रभु विधि बचन कीन्ह चह साँचा, इस कार्य में विघ्न उपस्थित होंगा । रामचन्द्रजी के सङ्कत को समझ कर मुनि लोक-मादा के अनुसार कहने लगे, यह 'सूक्ष्म अलंकार' है दो-राम लखन दोउ बन्धु बर, रूप-सील-बल धाम । मख राखेउ सब साखि जग, जिते असुर सङ्ग्राम ॥२१६॥ राम लक्ष्मण दोनों भ्रष्ट बन्धु रूप, शील और बल के स्थान हैं । सब संसार साती है कि इन्होंने युद्ध में राक्षसों को जीत कर मेरे यन्त्र की रक्षा की है ॥२१६॥ , द