पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२७७

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रामचरित मानस । २२० पीत-बसन परिकर कटि माथा । चारु चाप सर सेाहत हाथा तन अनुहरत सुचन्दन खोरी । स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥३॥ पीताम्बर पहने हुए कमर में दुपट्टा से तरकस कसे हैं। हाथ में सुन्दर-धनुषवाण शोभित है। शरीर के अनुकूल चन्दन की मुहावनी सौर है और श्यामल गौर रह की जोड़ी मन को हरनेवाली है ॥२॥ फेहरि-कन्धर बाहु बिसाला । उर अति रुचिर नाग-मनि-माला ॥ सुभग सान सरसोरुह लोचन । बदन-मयङ्क ताप त्रय मोचन ॥३॥ सिंह के समान ऊँचे कन्धे और विशाल भुनाएँ हैं, हदय में अत्यन्त मनोहर गजमाती की भाला है । सुन्दर लाल कमल के समान नेत्र हैं और मुनचन्द्र तीनों तापों को छुड़ानेवाला है। कानन्हि कनक-फूल छबि देहीं । चितवत चितहि चोरि जनु लेही ॥ चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी । तिलक रेख सोभा जनु चाकी ॥१॥ कानों में सुवर्ण के फूल शोभा दे रहे हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों देसनेवालों के चित्त. को चुरा लेते हैं। । उनका निहारना मनोहर और भौहे उत्तम देती हैं, तिलक की रेखामों की कृषि ऐसी जान पड़ती है मानो विजली (चमकती) हो ॥ ४॥ दो-चिर चौतनी सुभग सिर, मेचक कुञ्चित केस । नख-सिख सुन्दर बन्धु दोउ, सोभा सकल सुदेस ॥२१॥ सुन्दर सिर पर सुहावनी चौतनियाँ (चौगसी टोपी) हैं और घूघरवाले. काले बाल हैं। नख से चोटी पर्यन्त दोनों भाई सुन्दर सम्पूर्ण अनुकूल शोभा से युक्त हैं ॥ २१॥ चौ०-देखन नगर भूप-सुत आये। समाचार पुरबासिन्ह पाये। धाये घाम काम सब त्यागी । मनहुँ रङ्क निधि लूटन लागी ॥१॥ राजकुमार नगर देखने आये हैं, यह समाचार पुरवासियों ने पाया । सब घर का काम छोड़ कर इस तरह दौड़े मानों दरिदी सम्पत्ति की राशि लूटने के लिए दौड़े हो.॥१॥ धन की लूट सुन कर कङ्गाल मनुष्य उस ओर दौड़ते ही हैं । यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। निरखि सहज सुन्दर दोउ भाई । होहिं सुखी लोचन फल पाई ॥ जुबती भवन झरोखन्हि लागौं । निरखहि राम रूप अनुरागौं ॥२॥ स्वाभाविक सलोने दोनों भाइयों को देख नेत्रों का फल पा कर सुखी होते हैं। युवतियाँ घर की खिड़कियों में लगी रामचन्द्रजी की छवि को प्रेम से निहार रही हैं ॥२॥