पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२८१

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रामचरित मानस । बरसाकर मार्ग कोमल कर रही हैं। (२) पुष्पवर्षा मङ्गल का चिन्ह है, वह इन्हें फलदायी हो। (३) रामचन्द्रजी ऊपर निहारते नहीं हैं, फूल एरसाने से ऊपर दृष्टि करेंगे तब मुखारविन्द का अच्छी तरह दर्शन होगा (४) सुन्दर सुमन बरसाती हैं, अर्थात् मन जप में लगकर अपने वश में नहीं रह जाता। 'सुमुखि कहने में यह ध्वनि है कि रामचन्द्रजी की वड़ाई करती हैं। सुलोचनि इसलिए कि रामचन्द्र की छवि देख रही हैं। परमानन्द योगिराज जनक के पुर में बसता है, वह रघुनाथजी के शृङ्गारानन्द से हार कर उनके पीछे पीछे फिर रही है। चौ०-पुर पूरब-दिसि गे दोउ भाई । जहँ धनु-मख हित भूमि बनाई। अति विस्तार चारु गच दारी। बिमल घेदिका सचिर सवारी ॥१॥ नगर के पूर्व दिशा में दोनों भाई गये जहाँ धनुष-यक्ष के लिए भूमि बनाई गई है। बहुत सम्वा चौड़ा सुन्दर ढालु माँ चबूतरा बना हुआ है, उस पर स्वच्छ मनोहर वेदी (धनुष रखने की छोटी चबूतरी ) लजाई हुई है ॥१॥ चहुँ दिसि कञ्चन मञ्च बिसाला। रचे जहाँ बैठहिँ महिपालो ॥ तेहि पाछे समीप चहुँ पासा। अपर मच मंडली बिलासा ॥२॥ उस ( वेदी ) के चारो ओर बड़े बड़े सुवर्ष के मव बने हैं, जहाँ गजा लोग बैठते हैं। उनके पीछे पास ही में चारों तरफ़ दूसरे मञ्चों का मण्डलाकार घेरा शोभित है ॥२॥ कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई । बैठहिँ नगर लोग जहँ जाई ॥ तिन्ह के निकट बिसाल सुहाये । धवल धाम बहु बरन बनाये ॥३॥ (प्रथम मच-पंक्ति से कुछ ऊँची सब तरह सुहावनी है, जहाँ जाकर नगर के लोग वैठते हैं । उन(मञ्चो के समीप में बडे बड़े सुन्दर स्वच्छ घर बहुत रङ्ग के बनाये गये हैं ॥३॥ जहँ बैठे देखहिँ सब नारी । जथाजोग निज-कुल अनुहारी ॥ पुर-बालक कहि कहि मृदु बचना । सादर प्रभुहि देखावहि रचना ॥४॥ जहाँ यथायोग्य अपने कुल के अनुसार बैठ कर सय स्त्रियाँ देखती हैं। नगर के वालक कोमल वाणी से कह कह कर आर के साथ प्रभु रामचन्द्रजी कोरङ्गशालाको बनावट दिखाते हैं ॥४॥ दो-सव सिस् एहि मिस प्रेम-बस, परसि मनोहर गात । तन पुलकहि अति हरष हिय, देखि देखि दोउ भात ॥२२॥ सब लड़के प्रेम के अधीन इसी बहाने मनोहर अङ्गछ कर शरीर से पुलकित होते हैं और दोनों भाइयों को देख कर हदय में बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं ॥२४॥ बालकों को अभीष्ट है रामचन्द्रजी के मङ्गका स्पर्श, वह रणभूमि दिखाने के बहाने अपना इष्ट साधन करते हैं। .