पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२८६

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I 'T प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २२९ साथ छोड़ कर वाग में जाने का प्रयोजन यह है कि यदि कोई पुरुष हो तो बाहर निकल जाने का श्रादेश कर दे, क्योंकि राजकुमारी उस ओर से गुजरेगी। दोनों कुंघरों को देखते ही मुग्ध हो गई, कुछ कह न सकी, प्रेम से विहल हो सीताजी के पास आई। दो-तासु दसा देखी सखिन्ह, पुलक-गात जल-नैन । कहु कारन निज हरष कर, पूछहिँ सब मृदु बैन ॥ २२८ ॥ उसकी दशा सखियों ने देखी कि शरीर पुलकित और नेत्रों में जल भरा है । सब कोमल वाणी से पूछती हैं कि तु अपने हर्ष का कारण कह ॥२२८ ॥ 'पूछहिँ सब मृदु चैन' में लक्षणामूलक ध्वनि है कि उस प्रेम-विह्वला सखी के हदय पर आघात न पहुँचे किम्वा इसकी दशा देख कर जानकीजी न घबरा जाँय । चौ०-देखन बाग कुँअर दुइ आये । बथ-किसोर सब भाँति सुहाये ॥ स्याम गौर किमि कहउँ बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥१॥ यह सस्त्री कहने लगी-दो कुवर. वाग 'देखने आये हैं, उनकी किशोर (१५ वर्षकी) अवस्था है और सब तरह से सुहावने हैं। श्यामल गौर वर्ण हैं; मैं किस प्रकार बखान कर कार, जीम को आँख नहीं है और आँखे बिना जीभ की हैं ॥१॥ सुन्दरता न कह सकने का कारण सखी ने कैसी उत्तमता से समर्थन किया है कि जिला कह सकती है, पर उसने देखा नहीं, क्योंकि उसे आँख नहीं है। नेत्रों ने उनके रूप देने हैं, पर उन्हें जीभ नहीं 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है । कुचरों को फूल चुनते देख भाई है, पर सन्देश में यह नहीं कहा, क्योंकि उससे माली-पुत्र और ब्राह्मण कुमार का सन्देह होता । इससे राज. कुवर व्यजित करने की ध्वनि है। सुनि हरष सब सखी सयानी । सिय हिय अति उत्तकंठा जानी ॥ एक कहइ नृप सुत तेइ आली । सुने जे मुनि सँग आये काली ॥२॥ सुन कर सय सयानी सखियाँ सीताजी के हृदय में अत्यन्त, अभिलाषा समझ कर प्रसन्न हुई। एक कहने लगी हे बाली ! ये वे ही राजकुमार हैं जो सुना है कि कल विश्वा- मित्र मुनि के सोथ आये हैं ॥२॥ इन सस्त्रियों के हृदय में राजकुमारों के दर्शन की प्रबल इच्छा है, राजकुमारी की उत्कण्ठा अनुमान कर अपनी स्वाहिश पूरी करने के लिये कारण दिखा कर उन्हें चलने के हेतु उत्तोजित करना 'द्वितीय पर्यायोकि अलंकार, है। जिन्ह निज रूप मोहनी डारी । कीन्हे स्वबस नगर-नर-नारी । बरनत छवि जहँ तहँ सब लोगू । अवसि देखियहि देखन जोगू ॥३॥ जिन्होंने अपने रूप की मोहनी डाल कर नगर के स्त्री-परूषों को अपने वश में कर लिया है। सब लोग जहाँ तहाँ उनकी छवि का वर्णन करते हैं, देखने योग्य है अवश्य देखना चाहिए ॥३॥