पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२८७

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२३० रामचरित-मानस । 'देखन जोगूस:श्लिष्ट शब्द द्वारा साधारण अर्थ के सिवा सहेली एक गुप्त अर्थ प्रकट करती है कि नारदजी ने जो भविष्यवाणी की है, उनकी यातें घट रही है। देखने में योग (विवाह सम्बन्ध) को सम्भावना है । यह 'विवृताक्ति अलंकार' है। तासु अचन अति सियहि सुहाने । दरस लागि लोचन अकुलाने ॥ चली अन करि प्रिय सखि साई । प्रीति पुरातन लखइ न कोई ॥१॥ उसकी बात सीताजी को बहुत अच्छी लगी और दर्शन के लिए आँखें बेचैन होगई। इस प्यारी सखी को (जो राजकुमारों को देख आई है) आगे करके चली, उनकी पुरानी प्रीति कोई लखती नहीं हैं ॥४॥ "प्रीति पुरावन लखइ न कोई" इस चौपाई में कई प्रकार की गूढ़ ध्वनि है । यथा- १-सीताजी ने उस सखो को श्रागे इसलिए किया कि जिसमें हमारी प्राचीन प्रीति को कोई लखने न पाये २-दर्शन के लिए लेचिन अकुला उठे हैं, सस्त्री को आगे कर लिया जिसमें कोई उस आकुलता को न जान सके ३-वह राम-जानकी की प्रीति ही सखी अपधारी मिलाने को लिए जा रही है। दो-सुमिरि 'सीय नारद बचन, उपजी प्राति पुनीत । चकित बिलोकति सकल दिसि, जनु सिसु मुंगी सभीत ॥२२॥ नारदजी के वचनों का स्मरण करके सीताजी के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे सम्पूर्ण दिशाओं में चकपका कर निहारती हैं, ऐसा मालूम होता है मानो वाल-हरिणी भयभीत -हुई इधर उधर देखती हो ॥२२॥ नारदजी एक बार कह गये थे कि इस कन्या का विवाह जिस वर के साथ होगा, वे श्यामवर्ण राजकुमार पहले फुलवाड़ी में दिखाई पड़ेंगे, उन्हीं से पीछे विवाह होगा। देवर्षि की बातों की याद आना 'स्मरण अलंकार है । सीताजी का चकित हो कर इधर उधर देखना उत्प्रेक्षा का विषय है । बाल-मृगी सिंहादि जीवों से डर कर चकपकाती है, सीताजी सखियों की लाज से भयभीत हुई हैं कि कहीं ये मेरे गुप्त प्रेम को जान न लें। यह उकविषया पस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है । यहाँ श्रीरामचन्द्रजी के अलौकिक सौन्दर्य की बात सखी के मुख से सुन कर उनसे मिलने के पूर्व ही सीताजी के मन में प्रेम हुआ वह रति स्थायी भाव है। रामचन्द्रजी मालम्बन विभाव हैं । उनके साक्षात्कार की उत्कट इच्छा उहीपन विभाव है। दर्शनार्थ गमन करना, भयभीत बालमृगीकी तरह चारों ओर देखना अनुभाव है। उत्सुकता, चपलतादि सञ्चारी भावों से पुष्ट हो कर पूर्वानुराग विप्रलम्भ ङ्गार रस हुआ है। चौ०-कडून किङ्किनिनूपुरधुनिसुनि । कहत लखन सन राम हृदय गुनि । मानहुँ मदन. दुन्दुभी दोन्ही । मनसा बिस्व विजय कह कीन्ही ॥१॥ कङ्कण, करधनी और पायजेवों के शब्द सुन कर रामचन्द्रजी मन में विचार कर लक्ष्मणजी से कहते हैं। हे लक्ष्मण ! यह आवाज़ ऐसा मालुम होता है मानों कामदेव संसार को जीतने की इच्छा करके नगाड़े बजवा रहा हो ॥१॥