पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २३३ जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी । नहिं पावहिं परतिय मन दीठी ॥ मगन लहहिँ न जिन्ह के नाहीं । ते नर बर थोरे जग माहीं ॥४॥ जिनकी पीठ संग्राम में शत्रु नहीं पाते, जो पराई स्त्री पर मन से दृष्टि नहीं लगाते अथवा पर स्त्री मन और दृष्टि नहीं पाती। मान जिनके यहाँ नहीं (फेरा) नहीं पाते, ऐसे श्रेष्ट मनुष्य संसार में कम हैं ॥४॥ दो-करत बतकही अनुज सन, मन सिय रूप लोभान । मुख-सरोज मकरन्द छबि, करइ मधुप इव पान ॥ २३१ ॥ छोटे भाई से बातचीत करते हैं, पर मन सीताजी के रूप में लुभाया हुआ है। मुख रूपी कमल के छवि रूपी मकरन्द (रस) को मन भ्रमर के समान पान करता है ।। २३१ ॥ जिस प्रकार भ्रमर फूल के चारों ओर गुजार करता है और रस पान करते समय मौन हो जाता है। उसी प्रकार रामचन्द्रजी का लक्ष्मण से बातें करना गुजारना है, फिर नेत्रों का कप में लग जाना मौन होकर रस पान करना है। पहले रामचन्द्रजी के मन में वितर्क टुथा कि सूर्यवंशी राजाओं का पराई स्त्री पर आसक्त होना अकार्य है। इस भाव को शुभ अङ्ग के फड़कने से मति सञ्चारी भाव ने दूर कर दिया। तब निःशङ्क मुख छवि देखने लगे। प्रथम को दूसरे भाव ने और दूसरे को तीसरे ने क्रमशः दबा दिया है । यह 'भाव सबलता है। चौ०-चितवति चकित चहँदिसिसीता । कहँ गये नृप-किसोर मन चिन्ता॥ जह बिलोक मृग-सावक-नैनी। जनुतहँबरिस कमल-सित-स्रनी॥१॥ सीताजी चकपका कर चारों ओर निहारती हैं कि मन को चिन्तित करनेवाले राजकिशोर कहाँ गये ? बोलमृगनैनी (जानकीजी) जहाँ देखती हैं, ऐसा मालूम होता है मानों वहाँ सफेद कमल-पुष्पों का समुदाय वरसता हो ॥ १ ॥ राजकुमार के न दिखाई पड़ने से 'चिन्ता सञ्चारी भाव' है। कविलोग आँख की उपमा कमल से देते हैं, नेत्र के श्वेत अंश को मित्रता सूचक मानते हैं , यहाँ यह उत्प्रेक्षा करना कि वह निहारना मानों सफेद कमल के कतार का बरसना हो, यह कवि की कल्पना मात्र है, क्योंकि कमल तालाबों में फूलते हैं आसमान से बरसते नहीं 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। उता ओट तब सखिन्ह लखाये । स्यामल गौर किसोर सुहाये । देखि रूप लोचन ललचाने । हरषे जनु निज निधि पहिचाने ॥२॥ तक सस्त्रियों ने लतर की आड़ में श्यामल गौर सलाने कुमारों को लखाया। उनकी छवि देख कर आँखें ललचा गई, वे ऐसी मालूम होती हैं मानों अपनी (विछुड़ी हुई) अपार-सम्पत्ति पहिचान कर प्रसन्न हुई हो ॥२॥ अपनी खोई हुई निधि पहिचान लेने पर लोग हहा कर उस' पर टूट पड़ते ही हैं। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है।