पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस । २३४ थके नयन रघुपति छबि देखे । पलकन्हिहूँ परिहरी परिहरी . निमेखे ॥ अधिक सनेह देह भइ भारी । सरद-ससिहि जनु चितव चकोरी ॥३॥ रघुनाथजी की छवि को देख कर नेत्र वहीं ठहर गये. पलकों ने खुलना और बन्द होना छोड़ दिया। अधिक स्नेह से शरीर की सुध नहीं रही, ऐसी मालूम होती हैं मानों शरद काल के चन्द्रमा को चकोरिनी निहारती हो ॥३॥ चकोरिनी अनिमेष हो कर शरच्चन्द्र को ताप की शान्ति के लिए निहारती ही है। यह 'उक्तविषया वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार' है। थके' शब्द में लक्षणामूलक व्यङ्ग है कि रघुनाथजी की छवि का बड़ा विस्तार है, पार न पाने से नेत्र थक गये, किम्वा पड़ी देर से खोज में थे, पा कर शान्त हो टिक गये। प्रानन्द-पूर्वक वाटिका की शोभा देखते राम न्द्रजी के सहसा दृष्टिगत होते ही सीताजी का जड़त्व को प्राप्त होना 'स्तम्भ सात्विक अनुमान है। लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥ जबसिय सखिन्ह प्रेम-घस जानी । कहि न सकहि कछु मन सकुचानी ॥४॥ आँखों के रास्ते रामचन्द्रजी को हृदय में ला कर सयानी (सीताजी) ने पलकों के किवाड़ वन्द कर लिये । जव सखियों ने सीताजी को प्रेम के अधीन जाना; तब वे मन में सकुचा गई और कुछ कह नहीं सकती हैं ॥४॥ कवि इच्छित अर्थ के अतिरिक्त इसमें दूसरा अर्थ भी प्रकट होता है कि चञ्चल व्यक्ति को वधुश्रा बनाने के व्यवहार में किवाड़ वन्द करना पड़ता है। यह 'समासोक्ति अलंकार' है। 'सयानी' विशेषण में प्रशंसा व्यजित करना व्यङ्ग है, क्योंकि चतुर ही ईश्वर के रूप को हृदय. मन्दिर में बरसाते हैं। दो-लता-मवन से प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ। निकसे जनु जुग बिमल बिधु, जलद-पटल बिलगाइ ॥ २३२ ॥ ॥ उसी समय दोनों भाई लता-मण्डप से बाहर हुए। वे ऐसे मालूम होते हैं मानों दो निर्मल चन्द्रमा वादलों की पंक्ति को हटा कर निकले हो ॥२३२॥ दो निर्मल (कलङ्क रहित ) चन्द्रमा का मेघों को हटा कर निकलना कवि की कल्पना .मात्र है, क्योंकि दो चन्द्रमा साथ कभीनहीं उदय होते।यह 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। , चौ०-साना सीव सुभग दोउ बीरा। नील-पीत-जलजात सरीरा ॥ मार-पल सिर सोहत नीके । गुच्छ बीच बिच कुसुम-कली के ॥१॥ दोनों भाई सुन्दर शुरवीर शोभा के हद और श्याम पीले कमल के समान शरीरवाले हैं। मस्तक पर अच्छी तरह मुरैले का पक्ष शोभित है और बीच बीच में पुष्प कलियों के गुच्छे लगे हैं ॥१॥ प्रयाग-निवासी पण्डित रामवक्स पाण्डेय ने 'काकपक्ष' पाठ ठीक माना है। समा की प्रति में 'गुच्छा विच विच कुसुमकली के पाठ है।