पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२९४

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? . प्रथम सोपान, बालकाण्ड । दो-देखन मिस मृग बिहँग तरु, फिरइ बहोरि बहारि। निरखि निरखि रघुबीर छबि, बाढ़इ प्रीति न थोरि ॥२३४॥ मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने बार बार बगीचे में घुम रही हैं। रघुबीर की छबि देख देख कर मन में अपार प्रेम बढ़ता जाता है ॥२३४॥ सीताजी को अभीष्ट तो है रामचन्द्रजी की छवि निरीक्षण करना, परन्तु इस कार्य को वे मृगादिको को देखने के बहाने से साधन करती हैं । यह द्वितीय पार्यायोक्ति अलंकार' है। 'रघुबीर-छवि' में अर्थ का श्लेष है। रामरूप हृदय में ले आई; किन्तु अपने को पिता के वश जान कर विषाद और चिन्ता के वश अकुला गई कि ऐसा करना अकार्य है। इससे वार बार घूम फिर कर रघुनाथजी को देखने लगी। जब बीरता भरी छवि का निरीक्षण किया और यह विश्वास हुआ कि ये अवश्य ही धनुष भङ्ग करेंगे, तब अपार प्रीति बढ़ी। चौ०-जानि,कठिन सिव चाप बिसूरति । चली राखि उर स्यामल मूरति॥ प्रभु जब जात जानकी जानी । सुख-सनेह सोभा-गुन खानी ॥१॥ कठोर शिव-धनुष को टूटा हुआ समझ कर हदय में श्यामल-मूर्ति रख कर चली। प्रभु रामचन्द्रजी ने जर सुख, स्नेह, छषि और गुणों की खानि जानकीजी को जाते हुए जाना ॥१॥ अभी रामचन्द्रजी धनुष के पास पहुँचे नहीं और सीताजी का यह निश्चय कर लेना कि धनुष को इन्होंने तोड़ दिया, यह आत्मतुष्टिप्रमाण अलंकार, है। "जानि कठिन शिव चाप बिसूरति" इस चौपाई का यह अर्थ करना कि शिवजी के धनुष को कठोर जान कर सीताजी विसूरती (खेद करती हैं) ठीक नहीं। क्योंकि जब ऐसी अवस्था होती तब राम. चन्द्रजी के रूप को हृदय में बसाना सतित्व के विरुद्ध कार्य कैसे कर सकती थीं । विसूरति शब्द का अर्थ, सूरति . हीन होना और विसूरना वो विलाप करना दोनों है । प्रसङ्गानुकूल यहाँ सूरति हीन टूटा हुआ से तात्पर्य है, खेद करने का प्रयोजन नहीं है । परमप्रेममय मृदु मसि कीन्ही । चारु चित्र भीतर लिखि लीन्ही । गई भवानी भवन बहोरी। बन्दि चरन बोली कर जोरी ॥२॥ अत्युत्तम प्रेम को मुलायम स्याही रूप बना कर सीताजी की सुन्दर तसबीर अपने अन्तः करण में लिख ली। उधर जानकीजी-फिर गिरिजा के मन्दिर में गई और, चरणों की बन्दना कर के हाथ जोड़ कर बोलीं ॥२॥ 'मृदु' शब्द उत्कर्ष का कारण नहीं है. क्योंकि जल-मय होने से स्याही स्वतः मुलायम. होती है, तो भी वैसी कल्पना करना प्रौढोक्ति अलंकार' है। जिस प्रकार सीताजी श्यामल- मूति हृदय में रख कर चलीं, उसी तरह रामचन्द्रजी ने उनका चित्र अपने हृदय-पट पर अङ्कित कर लिया । यह समान परस्पर प्रेम 'अन्योन्य अलंकार' है। जैसे सीताजी ने रूप हृदय में बसाया, वैसा रामचन्द्रजी के लिए ने. कह कर केवल चित्र खींचना कहते हैं। प्रेम और मर्यादा की पुष्टि कैसी खूबी से की गई है कि जिसका घणन नहीं हो सकता । यदि .