पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२९५

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. शमचरिन-मानस। २३८ दोनों ओर एक समान बातें कही जाती तो ध्वनि में विलक्षण चमत्कार ना आती। सभा की प्रति में 'चारु चिच भीती लिखि लीन्ही, पाठ है। जय जय गिरि-बर-राज किसोरी । जय महेस-मुख-चन्द चकोरी ॥ जय गज-बदन षडानन-माता । जगत-जननि-दामिनि-दुति गाता ॥३॥ हे श्रेष्ठ गिरिराज की कन्या ! शिवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की चकोरिणी !आपकी जय हो जय हो; जय हो । हे गजानन और स्वामिकार्तिक की माता जगज्जनी ! आपके शरीर में बिजली के समान कान्ति है, आपकी जय हो ॥३॥ सीताजी जिस कामना से प्रार्थना करती हैं तदनुसार सारी संज्ञाएँ सामिप्राय वर्णन. हुई हैं। यथा-"पर्वत परोपकारी होते हैं, इससे पर्वतराज की कन्या ही मेरा उपकार करने में समर्थ हो सकती है। महेश मुखचन्द्र की चकोरणी ही मेरे ताप को हर सकती है। गणेश की माता विघ्न नशावेगी । पटवदन की जननी ही धनुष-भङ्ग की कठिनता मिटा सकती है। जगन्माता ही मेरी पालना करने में समर्थ हो सकती हैं। यह 'परिकराकर अलकार' है। नहिं तव आदि मध्य अवसाना । अमित प्रभाव बेद नहिं जाना । भव-भव-विभव-पराभव कारिनि। बिस्व-बिमोहनि स्वबस-बिहारिनिराशा आपका श्रादि, मध्य और अन्त नहीं है, अपार महिमा को वेद भी नहीं जानते । प्राप संसार को उत्पन्न, पालन और प्रलय करनेवाली हैं, जगत् को मोहनेवाली एवम् स्वतन्त्र रूप से (शङ्करजी के सह में) विहार करनेवाली हैं ॥४॥ भव शब्द दो बार आया है, पर दोनों का अर्थ भिन्न है । एक संसार का वाचक है और दूसरा उत्पन्न करने का बोधक है । इसलिये यह 'यमक अलङ्कार' है । 'स्ववस-विहारनी' शप में अभिप्रेत फल की कामना व्यजित होना मृदन्यंङ्ग है कि जैसे शङ्करजी के साथ भाप स्वतन्त्र विहार करती हैं, वैसा मुझे आशीर्वाद दीजिये कि मैं भी रामचन्द्रजी के सङ्ग स्वच्छ विहार कर। दो०-पतिदेवता सुतीय मह, मातु प्रथम तव रेख । महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेख ॥२३॥ हे माता ! सुन्दर पतिव्रता खियो में आपको पहली रेख है अर्थात् अग्रगण्य हो। आप की अनन्त महिमा कोसहस्रों सरस्वती और शेष नहीं कह सकते ॥२३॥ चौ०-सेवत ताहि सुलभ फल चारी । बर-दायिनि त्रिपुरारि पियारी ॥ देबि पूजि पद-कमल तुम्हारे । सुरनर मुनिसब होहिँ सुखारे ॥१॥ आपकी सेवा में चारों फल सहज में मिलते हैं, आप वर देनीवाली और शङ्करजी की प्यारी हो ।हे देवि! आपके चरण-कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सव सुखी यहाँ 'वर' शब्द में वरदान और दूलह दोनों अर्थ निकलते हैं, इसलिये यह 'श्लेष अल- कार' है। 'सब होहि सुखारें अपनी कामना के अनुसार स्वभाव वर्णन में अंन्तरसंक्रमित थगढ़ न्यक है कि जब आपको पूजन कर सभी प्रसन्न होते हैं. नन मेरी भी इच्छा पूरी होगी। होते हैं ॥१॥