पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०१

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॥ रामचरित मानस । २१४ चौ०-राजकुँअर तेहि अवसर आये । मनहुँ मनोहरता तन छाये गुन-सागर नागर बर बीरा । सुन्दर स्यामल गौर सरीरा ॥१॥ उसी समय दोनों राजकुमार आये, वे ऐसे सुहावने मालूम होते हैं मानो शरीर पर मनो. हरता टिकाये हैं। । सुन्दर, श्याम, गौर अङ्ग, गुणों के समुद्र, चतुर और अच्छे शूरवीर हैं ॥१॥ राज-समाज विराजत करे । उडुगन महँ जनु जुग विधु पूरे ॥ जिन्ह के रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी ॥२॥ राजाओं की मण्डली में सुन्दर शोभित हो रहे हैं, वे दोनों भाई पैसे जान पड़ते हैं मानों तारांगणों के बीच में दो पूर्णचन्द्रमा हो । जिनकी जैसी भावना धी, प्रभु रामचन्द्रजी की सूरत को उन्होंने वैसी ही देखी ॥२॥ तारागणों के बीच चन्द्रमा शोभित होते ही हैं, परन्तु साथ में दो पूर्णचन्द्र आकाश में उदय नहीं होते । यह कवि की कल्पना मात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। उत्तराई में एक रामचन्द्रजी को बहुत से लोग भिन्न रूप में देखते हैं। यह 'प्रथम उल्लेख अलंकार' है। यही अलंकार प्रधान रूप से नीचे की चौपाई 'जेहि विधि रहा जाहि जस भाऊ तेहि तस देखेउ कोसलराऊ, पर्यन्त विद्यमान है । बीच में उत्प्रेक्षा, उदाहरण, उपमा भी इसके अझ होकर आये हैं। देखहिं भूप भूप महा-रन-धीरा । मनहुँ वीररस धरे सरीरा । डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥३॥ बड़े बड़े रणधीर राजा देखते हैं, उन्हें ऐसा मालूम होता है मानो वीररस शरीर धारण किये हो । कुटिल राजा प्रभु रामन्द्रजी को देख कर डर गये, उन्हें ऐसा जान पड़ा मानों भयानक रस की भारी मूर्ति ही ॥३॥ रहे असुर छल छोनिय बेखा । तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा ॥ पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई । नर-भूपन लोचन सुखदाई ॥१॥ जो दैत्य कपट से गजाओं के घेप में थे, उन्होंने प्रभु रामचन्द्रजी को प्रत्यक्ष काल [रौद्र-रस] के समान देना । नगर निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों में भूपण और नेत्रों को सुख देनेवाले समझा ॥ ४ ॥ दो-नारि बिलोकहिं हरषि हिय, निज निज रुचि अनुरूप । जनु सेहत सृङ्गार धरि, भूरति परम · अनूप ॥२४॥ स्त्रियाँ अपनी अपनी रुचि के अनुसार देख कर हदय में प्रसन्न होती हैं। उन्हें ऐसा मालूम होता है मानों शृङ्गार रस ही अत्युत्तम अपूर्व रूप धारण किये हो ॥ ४१ ॥