पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २४५ चौ-बिदुषन्ह प्रभुबिराट मय दीसा । बहु मुख-झर-पग-लोचन-सीसा ॥ जनक जाति अवलोकहिँ कैसे । सजन सगे प्रिय लागहि जैसे ॥१॥ पण्डितों ने प्रभु रामचन्द्रजी को विराट रूप (वीभत्सरस) देखा कि बहुत से मुख, हाथ, पाँव, नेत्र और सिर हैं । जनकजी के कुटुम्बोजन किस तरह देखते हैं, जैसे सज्जन नातेदार (दामाद) प्यारे लगते हैं ॥ १॥ सहित बिदेह बिलोकहिँ रानी । सिसु सम प्रीति न जाइ बखानी ॥ जोगिन्ह परम-तत्व-मय मासा । सान्त-सुद्ध-सम सहज प्रकासा ॥२॥ रानी सुनयना के सहित जनकजी बालक के समान (करुणारस पूर्ण) देखते हैं, उनकी प्रीति वखानी नहीं जा सकतो । योगियों को परम-तत्व ( ब्रह्म) रूप शुद्ध शान्त (रस) के समान सहज ही प्रकाशमान भासित हुए ॥२॥ हरिभगतन्ह देखे दोउ धाता । इष्टदेव इव सब सुख-दाता ।। रामहि चितव भाव जेहि सीया । सो सनेह सुख नहिँ कथनीया ॥३॥ हरिभक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुख देनेवाले (अद्भुतरस)इष्टदेव के बराबर देखा। सीताजी जिस भाव से रामचन्द्रजी को देख रही है, उस स्नेह का सुख (हास्यरस ) कहने योग्य नहीं है ॥३॥ रामचन्द्रजी के भिन्न रूप दर्शन में प्रकट और सूक्ष्म रीति ले कान्य के नवरसों का कवि ने दिग्दर्शन कराया है। उर अनुमति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहइ कबि कोऊ ॥ जेहि बिधि रहा जोहि जस भाज। तेहि तस देखेउ कोसलराज ॥ ४ ॥ जो (सीताजी इस स्नेह-सुख का अनुभव अपने हृदय में कर रही हैं वे भी नहीं कह सकती, तब कोई कवि किस प्रकार से कहेगा? जिसके हदय में जैसी भावना थी, कोशलाधीश रामचन्द्रजी को उसने वैसा ही देखा ॥ जब अनुभव करनेवाली स्वयम् उस प्रेमानन्द का.वर्णन नहीं कर सकती , तब कवि क्या चीज़ है जो कह सकेगा? अर्थात् नहीं कह सकता। यह 'काव्यापित्ति अलंकार' है। दो०-राजत राज-समाज · महँ, कोसलराज-किसोर । सुन्दर स्यामल गौर तनु, बिख-बिलोचन चार ॥२४२॥ अयोध्या के राजा दशरथजी के पुत्र संसार के नेत्रों को चुरानेवाले मुन्द्र श्यामल गौर शरीर के राजाओं की मण्डली में शोभित हो रहे हैं ॥२५२॥ रामचन्द्रजी विश्व भर के नेत्रों को प्रिय लगनेवाले हैं। यह ने कह कर 'चोर' स्थापन करना अर्थात् और को और कहना 'सारोपा लक्षणा' है । 'वार' शब्द में लक्षया-मूलक अविव-