पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०३

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रामचरित मानस । क्षितवाच्य ध्वनि है कि चार दूसरे की सम्पति आँख मचा कर चुराता है, पर ये भरी समा में संबके सामने आँख ही चुरा लेते हैं । नेत्र धुराये जा नहीं सकते और चोरी होने पर धनी को दुःस्न होता है, किन्तु इस चोरी में उलटे धनी को श्रानन्द होता है। चौ०-सहज मनेाहर मूरति दोऊ । कोटि-काम उपमा लघु सोऊ ॥ सरद-चन्द-निन्दक मुख नीके । नीरज-नयन भावते जी के ॥ १ ॥ दोनों राजकुमारों का स्वाभाविक मनोहर रूप है, करोड़ों कामदेव की भी उपमा थोड़ी है। मुख शरदकाल के चन्द्रमा की निन्दा करनेवाला है सुन्दर कमल समान ने मन को सुहानेवाले हैं ॥१॥ चितवनि चारु मार-मद-हरनी। भावति हृदय जाति नहि बरनी॥ कल-कपोल-खुति-कुंडल-लोला । चिधुक अधर सुन्दर मृदु बाला ॥२॥ सुन्दर चितवन कामदेव के घमण्ड को हर लेती है, वह हदय में सुहाती है परन्तु वर्णन नहीं की जा सकती । गाल शोभन और कानों के वाले चञ्चल हैं, ठुड्ठी, ओठ एवम् कोमल वाणी मनोहर है ॥२॥ कुमुदबन्धु-कर-निन्दक हासा । भृकुटी विकट मनोहर नासा । आल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ॥३॥ हँसी चन्द्रमा की किरणों को तिरस्कृत करनेवाली है, मौहे टेढ़ी और नासिका मनोहर हैं। विशाल मस्तक पर तिलक झलक रहा है, वालों को देख कर भवरों की पकियाँ लजित होती हैं ॥३॥ पीत चौतनी सिरन्ह सुहाई । कुसुम-कली बिच बीच बनाई। रेखा रुचिर कम्बु कल ग्रीवाँ । जनु त्रिभुवन सुखमा की सीवाँ ॥४॥ पीले रग की चौगसी टोपियाँ मस्तकों पर सुहा रही हैं, उन पर बीच बीच में फूलों की कलियाँ बनाई (चित्रित की गई ) हैं। गले में सुन्दर शह के समान श्रेष्ठ रेखाएँ मनोहर हैं, वे ऐसी मालूम होती हैं मानों तीनों लोकों के छवि की हद हो l दो०-६ -कुञ्जरमनि-कंठा-कलित, उरन्हि तुलसिको-माल । अषम-कन्ध केहरि-ठवनि, बल-निधि बिसाल ॥२४॥ हृदयों पर सुन्दर गज-मोतियों का कराठा और तुलसी की माला शोभित है। बैल के समान कन्धा, सिंह की तरह चाल है, विशाल भुजाएँ पल की राशि हैं ॥२४॥ गजमोतियों की माला राजचिन्ह और तुलसी की मालाएँ मुनि-शिष्य सूचक चिन्ह है। चौ०-कटि तूनीर पीत-पट बाँधे । कर-सर धनुष-बाम-बर काँधे । । पीत-जज्ञउपबीत सोहाये । नख-सिख.मज्जु महाछबि छाये ॥१॥ कमर में पीले वस्त्र से तरकस बाँधे, हाथ में वाण लिए, पाएं कन्धे पर उत्तम धनुष और बाहु