पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०४

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1 प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २४७ पीत रंग का यज्ञोपवीत (जनेऊ) शोभायमान है। नख से चोटी पर्यन्त महान् सुन्दर छबिछाई हुई है ॥१॥ देखि लोग सब भये सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥ हरषे. जनक देखि दोउ भाई । मुनि-पद-कमल गहे तब जाई ॥२॥ सब लोग देख कर प्रसन्न हुए. आँखें एकटक हो गई, उनका सिलसिला छूटता नहीं है। दोनों भाइयों को देख कर जनकजी हर्षित हुए, तब उन्होंने जा कर मुनि के चरण-कमलों को पकड़ा (प्रणाम किया) ॥२॥ सभा की प्रति में एकटक लोचन-टरत न टा' पाठ है। न कोई टारनेवाला है और न टारने की आवश्यकता ही है, इससे गुटका का पाठ उत्तम है। करि बिनती निज कथा सुनाई। रङ्गअवनि सब मुनिहि देखाई ॥ जहँ जहँ जाहि कुँवर बर दोऊ। तह तह चकित चितव सब कोज ॥३॥ बिनती कर के अपनी (कथा प्रतिक्षा करने का वृत्तान्त) कह सुनायी, फिर सारी रजभूमि मुनि को दिखाई । जहाँ जहाँ दोनों सुन्दर कुवर जाते हैं, वहाँ वहाँ सब कोई आश्चर्य से देखते हैं ॥ . जनकजी ने कहा-हे मुनिराज ! मैं धनुष की नित्य पूजा करता हूँ। सदा वह स्थान सीता की माता लीपती थीं, तव धनुष के आस पास लीपा जाता था। एक दिन उसने कन्या को लीपने के लिए भेजा। सीता ने एक हाथ से धनुष उठा कर दूसरे हाथ ले भूमि लीप कर धनुष रख दिया। जब मैं वहाँ गया तो बड़ा आश्चर्य हुशा। सीता की माता से पूछा, , फिर कन्या के खयम् सब वृत्तान्त कह सुनाया। उसी क्षण मैं ने प्रतिज्ञा की कि सीता का विवाह मैं उसी से काँगा जो धनुष तोड़ डालेगा। निज निज रुख रामहि सब देर्खा। कोउ न जान कछु चरित बिसेखा" मलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ । राजा मुदित महा सुख लहेऊ ॥४॥ सय ने रामचन्द्रजी को अपनी अपनी ओर मुख किए देखा, पर इसका मुख्य भेद किसी ने कुछ नहीं जाना। विश्वामित्रजी ने राजा जनक से कहा-बहुत अच्छी रचना है, राजा प्रसन्न होकर बहुत ही सुखी हुए ॥४॥' एक रामचन्द्रजी जन-समूह में विराजमान हैं, मुख-मण्डल के सिवा उनका पृष्ठ भाग किसीको दिखाई नहीं पड़ता है और इस गुप्त रहस्य को कोई कुछ नहीं जानता 'अद्भुतरस' है। दो-सब मञ्चन्ह तँ मच्च एक, सुन्दर बिसद बिसाल । मुनि समेत दोउ बन्धु तह, बैठारे महिपाल ॥२४४॥ एक मञ्च सब मंचों से सुन्दर स्वच्छ और बड़ा था। राजा जनक ने मुनि के सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया ॥२४॥