पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०८

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1 प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २५१ यहाँ शाररस प्रधान और शान्त रख उसका आश्रित होने से 'रससंकरा है। अतुलित शब्द से वर्णन की असंका और जगत्-जननि से माता का ऋोर कहने में असमक्षस व्यजित करने को धनि है । इस चौपाई में भी लोग बहुत प्रकार के अर्थ घुमाव फिराव कर कहते हैं। भूषन सकल सुदेस सुहाये । अङ्ग अङ्ग रचि सखिन्ह बनाये। रङ्गभूमि जब सिय पग धारी। देखि रूप मेाहे नर नारी ॥२॥ सम्पूर्ण आभूषण सुहावने समयानुकूल प्रत्येक अंगों में सज कर सखियों ने पहिनाया है। जब सीजी ने रंगशाला में पाँव रक्खा, तब उनके कप को देख कर स्त्री पुरुष सब मोहित हो गये ॥२॥ हरषि सुरन्ह दुन्दुभी बजाई । बरषि प्रसून अपछरा गाई ॥ पानि-सरोज साह जयमाला । अवचट चितये सकल तुमाला ॥३॥ देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाये और फूल बरसा कर अप्सराएँ गान करती हैं। सीताजी के कर कमलों में जयमाल शोभित है,अचाने में उन्होंने सब राजाओं की ओर देखा॥३॥ सीय चकित चित रामहि चाहा। अये मोह-बस सत्र नरनाहा ॥ मुनि समीप देखे दोउ भाई । लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥४॥ सीताजी ने विस्मित चित्त से रामचन्द्रजी को देखना चाहा, ( उनकी चितवन से) सब राजा माह के वश में हो गये। दोनों भाइयों को विश्वामित्र मुनि के पास देख कर आँखे खसक कर इस तरह जा लगी मानों अपनी सम्पत्ति पा गई हो ॥॥ दो०-गुरुजन लाज समाज बड़, देखि सीय सकुचानि ॥ लगी बिलोकन सखिन्ह तन, रघुबीरहि उर आनि ॥ २४ ॥ उस बड़े समाज को देख कर गुरुजनों की लाज से सीताजी सकुचा गई। रघुनाथजी को हदय में ला कर सखियों की ओर निहारने लगीं ॥२४॥ बड़ों की लज्जा से हार्दिक प्रेम छिपाने के लिए चतुराई-पूर्वक सखियों की ओर देखना 'प्रवाहित्य सञ्चारी भाव है। चौ०-राम रूप अरु सियछवि देखे। नर नारिन्ह परिहरी निमेखे । सोचहिँ सकल कहत सकुचाहीँ । बिधि सनविनय करहिमन माहीं॥१॥ रामचन्द्रजी का रूप और जानकीजी की छवि देख कर स्त्री-पुरुषों का पलक गिरना बन्द हो गया। सा सोचते हैं और कहने में सकुचाते हैं, मन में विधाता से विनती करते हैं ॥९॥ क्यों सोचते सकुचाते हैं। यह नीचे की चौपाइयों में स्पष्ट किया गया है।