पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०९

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२५२ रामचरित मानस । हरु बिधि बेगि जनकं जड़ताई । मति हमारि असि देहि सुहाई ॥ बिनु विचार पन तजि नरनाहू । सीय राम कर करइ चियाहू ॥ ३ ॥ हे ब्रह्मा ! जनक की मूर्खता को जल्दी दूर कर के हमारी ऐसी सुहावनी बुद्धि दीजिए, जिसमें विना विचारे प्रतिशों छोड़ कर राजा सीता और रामचन्द्रजी का विवाह करें ॥२॥ जग मल कहिहि भाव सब काहू । हठ कीन्हे अन्तहु उर दाहू । एहि लालसा मगन सब लोगू । बर साँवरी जानकी जोगू ॥ ३ ॥ संसार अच्छो कहेगा और सबको यह पसन्द है, हठ करने से अन्त को हदय में तापं ही होगा। सब लोग इसी लालसा में मग्म है कि श्यामल वर जानकी के ही योग्य है ॥३॥ तब बन्दीजन जनक बोलाये। विरदावली कहत चलि आयें ॥ कंह नृप जाइ कहहु पन भारा। चले भाट हिय हरष न थोरी ign तब जनकजी ने बन्दीजों को बुलवाया, वे नामवरी बखानते हुए चल कर आये । राजा ने कहा-जा कर मेरी प्रतिझा सव को सुना दो, भाट चले; उनके मन में बड़ा हर्ष मा un 'हरष न थोरा' इस श्लिष्ट शब्द द्वारा कविजी एक और गुप्त अर्थ खोल कर कहते हैं कि भाट लोग राजाशा के अनुसार प्रतिक्षा सुनाने चले, पर उनके हृदय में थोड़ा भी हर्ष नहीं है। मार भी तो जनकपुर निवासी हैं, उनकी लालसा भीपुर के लोगों की तरह है पर राजामा प्रचार करने के लिए विवश हैं। यह 'विवृतोक्ति अलंकार है। दो-बोले बन्दी बचन बर, सुनहु सकलं महिपालं । पन बिदेह कर कहहिँ हम, भुजा उठाइ बिसाल ॥ २४६ ॥ वेबन्दीजन श्रेष्ठ पचन वोले- सम्पूर्ण गजा महाराजाओ! सुनिए, हम अपनी विशाल भुजाओं को उठा कर विदेह की प्रतिक्षा कहते हैं ॥२४॥ 'विवेह' शब्द में लक्षणामूलंक गूढ़ व्या है कि कोई देही ऐसी प्रतिक्षा नहीं कर सकता जैसी विदेह ने की है। चौ-प-भुजबल-बिधुसिव-धनु-राहू । गरुअ कठोर बिदित्त सब काहू॥ रावन बान महाभट भारे । देखि सरासन गवहिँ सिधारे ॥१॥ राजाओं के बाहुवल रूपी चन्द्रमा को प्रसने के लिए शिवजी का धनुष गहु, रूप गरमा और कठिन सबको विख्यात है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर धनुष को देख कर गँव से चले गये (धनुष ल्ने तक का साहस नहीं किया ) ॥१॥ इसकी गुरुता और कठोरता सब पर जाहिर है, जिसको देख कर रावण और वाणासुर जैसे महावली जगप्रसिद्ध योद्धा दङ्ग से सिधार गये तोड़ने की हिम्मत नहीं की 'अन्तर- : स्वास अलंकार है।