पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२५६ रामचरित मानस लक्ष्मणजी के हृदय में क्रोध स्थायी भाव है । जनकजी के द्वारा कही भाटों की वाणी आलम्बन विभाव है । उसका कानों में पड़ना नहीपन विभाव है। रामचन्द्रजी का तिरस्कार सुन कर मखाना, भौह टेढ़ी होना, ओठ फड़कना आदि अनुभाव है वह चपलता, अमर्ष', उग्रतादि समचारी भावों से पुष्ट हो कर 'टौद्ररस' हुआ है। दो-कहि न सकत रघुनीर डर, लगे वचन जनु बान । नाइ राम-पद-कमल सिर, बोले गिरा प्रमान ॥२५२॥ राघुनाथजी के डर से कुछ कह नहीं सकते, पर जनकजी के वचन मानो वाण लगे हो। रामचन्द्रजी के चरण-कमलों में सिर नवा कर यथार्थ वचन चोले ॥ २२॥ चौ०--रघुवंसिन्ह महँ जहँ कोउ होई। तेहि समाज अस कहइ न कोई ॥ कही जनक जसि अनुचित बानी। बिदामान रघुकुल-मनि जानी ॥१॥ रघुवंशियों में जहाँ कोई होता है, उस समाज में ऐसा कोई नहीं कहना, जैसी रघुल- मणि रामचन्द्रजी को उपस्थित जान कर जनकजी ने अनुचित वात कही है ॥१॥ सुनहु भानुकुल-पङ्कज भानू । कहउँ सुनाव न कछु अभिमानू ॥ तुम्हार अनुसासन पावउँ । कन्दुक इव ब्रह्मांड उठाव ॥२॥ हे सूर्यकुल-कमल के दिवाकर । सुनिए, कुछ अभिमान नहीं स्वभाव से कहता। यदि आप की आज्ञा पाऊँ तो गेद के बराबर पृथ्वी को उठा लू ॥२॥ काँचे घट जिमि डारउँ फोरो । सकउँ मेरु मूलक इव तोरी ॥ तव प्रताप महिमा भगवाना । का बापुरो पिनाक पुराना ॥३॥ कच्चे घड़े की तरह फोड़ डा, सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ।मग. धन् ! आपके प्रताप की महिमा के सामने वेचारा पुराना पिनाक धनुष क्या है ? ॥३॥ जब धरती को कच्चे धड़े के समान फोड़ सकता हूँ और सुमेरु को भूली की तरह तोड़ सकता हूँ, तब पुराना वपुरा धनुष क्या चीज़ है? वह तो दूटा टुटाया है 'काव्याापत्ति अलंकार है और जनकजी के अनुचित दर्प भरे वचनों के प्रतिकार की उत्कट इच्छा प्रदर्शित करना 'अमर्ष समचारीभाव' है। नाथ जानि अत आयसु हाई । कौतुक करउँ बिलोकिय साई । कमलनाल जिमि चाप चढ़ावउँ । जोजन सत्त प्रमान लेइ धाव ॥४॥ हे नाथ ! ऐसा समझ कर त्राशा हो तो मैं खेल कर उसको आप देखिए । कमल की डएठों की तरह धनुष को चढ़ाऊँ और सौ योजन पर्यन्त उसे ले कर दौड़ पाऊँ ॥४॥ दो-तारउँ छत्रकदंड जिमि, तव प्रताप बल नाथ । जौँ न करउँ प्रभु-पद सपथ, कर न धरउँ धनु भाथ ॥२५३॥ हे नाथ ! आप के प्रताप के बल से इसको मैं कुकुरमुत्ता के डपठल की तरह ,ताउँगा। यदि ऐसा न करता स्वामी के चरण को सौगन्ध कर कहता हूँ कि धनुष और वाय हाथ में न धारण कगा ॥२५३॥