पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३१४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । 'कर' के संयोग से 'भाथ' यद्यपि तरकस को कहते हैं, पर यहाँ बाण ही की अभिधा पाई जाती है, श्रोण की नहीं । चौ०-लखन सकोप बचन जब बोले । डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥ सकल लोक सब भूप डेराने । सिय हिय हरष जनक सकुचाने ॥१॥ जब लचमणजी क्रोध से वचन बोले, तब पृथ्वी डगमगा गई और दिशा के हाथी काँपने लगे। समस्त लोग और सब राजा डर गये, सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी लज्जित हुए ॥१॥ एक लक्ष्मणजी के क्रोध से वचन बोलने पर पृथ्वी का उगना, दिग्गजों का हिलना,लोग और राजाओं का डरना, जानकीजी का प्रसन्न होना, जनक का लजाना विरोधी कार्यों का प्रकट होना 'प्रथम व्याघात अलंकार' है। गुरु रघुपति सन्न मुनि मन माहौँ । मुदित भये पुनि पुनि पुलकाही ॥ सयनहिं रघुपति लखन निवारे । प्रेम समेत निकट बैठारे ॥२॥ गुरु विश्वामित्रजी, रघुनाथजी और सव मुनि मन में प्रसन्न हुए, वे बार बार पुलकित हो रहे है। रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को मना करके प्रेम के साथ पास में बैठा लिया॥२॥ गुरु, रघुपति और मुनि-समूह अनेक उपमेयों का एक ही धर्म पुलकित हो मन में आनन्दित होना कथन 'प्रथम तुल्ययोगिता अलंकार है। बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति-सनेह-मय बानी ॥ उठहु राम भजह भवचापा । भेटहु तात जनक परितापा ॥३॥ विश्वामित्रजी अच्छा समय जान कर अत्यन्त स्नेह भरी वाणी से बोले । तात राम- चन्द्र ! उठिए, शिवजी के धनुष को तोड़ कर जनक का दुःख मिटाइये ॥३॥ . सुनि गुरु बचन चरन सिर नावा । हरष विषाद न कछुः उर आवा । ' ठाढ़ 'अये उठि सहज सुभाये । ठवनि जुबा मृगराज लजाये ॥४॥ गुरु के वचन सुन कर उनके चरणों में सिर नवाया, हर्ष-विषाद कुछ भी मन में नहीं हुना।सहज स्वभाव से उठ कर खड़े हुए, उनकी चाल पर युवा सिंह लज्जित हो जाता है nen दी-उदित उदय-गिरि मञ्च पर, रघुबर बाल-पतङ्ग । बिकसे सन्त संरोज सब, हरषे लोचन-भङ्ग॥ २५४ ॥ मञ्च रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बाल-सूर्य के उदय (खड़े) होने से सब सन्त रूपी कमल खिल उठे और नेत्र रूपी भ्रमर प्रसन्न हुए ॥२४॥ मन्च पर उदयाचल का आरोप, रघुनाथजी पर बालसूर्य, सन्त-मण्डली पर कमल का और सन्तों के नेत्रों पर भ्रमर का आरोपण 'परम्परित रूपक अलंकार' है । आगे चल कर कवि ने सूर्योदय पर साङ्ग अपक बाँधा है। ।