पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३१५

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२५८ 4 रामचरित-मानस । चौ०-नृपन्ह केरिआसानिसिं नासी । बचन नखत अवलीन प्रकासी। मानी महिप कुमुद सकुचाने । कपटी भूप उलूक लुकाने ॥ १॥ राजाओं की आशा रूपी रानि नष्ट हो गई, उनके वचन रूपी तारापली का प्रकाशनहीं रह गया। कुमुद रूपी अभिमानी राजा लजित हुए और उल्लू कपी कपटी राजा छिप गये॥१॥ भये बिसाक कोक मुनि देवा । बरषहिँ सुमन जनावहिँ सेवा गुरु-पद बन्दि सहित अनुरागा । राम मुनिन्ह सन आयसु माँगा ॥२॥ चकवा रूपी मुनि और देवता शोक रहित हुए, वे फूल बरसा कर सेवा जनाते हैं। राम चन्द्रजी ने प्रेम के साथ गुरुजी के चरणों की बन्दना करके मुनियों से अाशा माँगी ॥२॥ सहजहि चले सकल जग स्वामी । मत्त मन्जु घर कुञ्जर-गामी ॥ चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक-पूरि-तन भये सुखारी ॥ ३ ॥ सम्पूर्ण जगत के स्वामी सहज ही सुन्दर श्रेष्ठ मतवाले हाथी के समान धीमी चाल से चले । रामचन्द्रजी के चलने पर नगर के सव स्त्री-पुरुप प्रसन्न हुए और प्रेम से उनके शरीर पुलकित हो गये ॥३॥ बन्दि पितर सुर सुकृत संभारे । जौं कछु पुन्य प्रमाउ हमारे । तो सिव धनु मृनाल की नाँई । तारहिं राम गनेस गोसाँई ॥१॥ पितर और देवताओं की वन्दना करके अपने मुकते का स्मरण किया कि यदि हमारे पुण्य में कुछ भी प्रभाव हो तो; हे गणेश गोसाई ! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल- नाल की तरह तोड़ डालें ॥४॥ सभा की प्रति में घन्दि पितर सय सुकृत सँभारे पाठ है। दो०-रामहि प्रेम समेत लखि, सखिन्ह समीप बोलाइ । सीता-मातु सनेह-बस, बचन कहइ बिलखाइ ॥ २५ ॥ सीताजी की माता रामचन्द्रजी को प्रेम से देख कर और सखियों को समीप में बुखा कर स्नेह के अधीन हो बिलखा कर (करुणा-पूर्वक ) वचन कहने लगीं ॥२५॥ यहाँ गमचन्द्रजी की सुकुमारता और धनुष की कठोरता देख कर अनिष्ट की प्रशिक्षा से सुनयना रानी के हृदय में जो दुःख हुआ 'दैन्य सञ्चारीभाव है। चौ०-सखि सब कौतुक देखनिहारे । जेउ कहावत हितू हमारे । कोउ न बुझाइ कहइ नृप पाहीं । ये बोलक अस हठ भल नाहीं ॥१॥ हे सखी ! जो हमारे हित कहाते हैं, वे सब तमाशा. देखनेवाले हुए हैं। कोई राजा को समझा कर नहीं कहता कि ये बालक है, ऐसा हट अच्छा नहीं है ॥१॥