पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। प्रथम सोपान, बालकाण्ड । सचिव सभय सिख देइ न कोई । बुध-समाज बड़ अनुचित होई ॥ कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदु-गार -किसोरा ॥२॥ कोई मन्त्री डर से शिक्षा नहीं देते हैं, विद्वन्मण्डली में यह बड़ा अनुवित हो रहा है। कहाँ धनुष की कठोरता को वन भी चाहता है और कहाँ श्यामल कोमल अन किशोर अवस्था के राजकुमार! ॥२॥ बिधि केहि भाँति धरउँ उर धीरा । सिरस सुमन कन बेधिय हीरा ॥ सकल सभा के मति भइ भारी। अब मोहि सम्भुचाप गति तोरी ॥३॥ हे विधाता। किस तरह मन में धीरज धीं, कहीं सिरस के फूल से हीरे की कनी छेदी जा सकती है ? सारे समाज की बुद्धि भोली हुई है, अब हे शङ्कर गप ! मुझे तेरा ही सहारा है॥३॥ सिरस के फूलों से हीरा का वेधना असम्भव है । प्रस्तुत वर्णन तो , यह है कि रामचन्द्र धनुष न तोड़ सकेंगे । उसको न कह कर प्रतिबिम्ब मात्र वक्रोक्ति द्वारा कथन करना ' ललित अलंकार' है। निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअर घुपतिहि निहारी ॥ अति परिताप सीय मन माही । लव निमेष जुग । सय सम जाहीं ॥४॥ अपनी जड़ता (गराई) लोगों पर डाल कर रघुनाथजी को देख कर हलके हो जाओ। सीताजी के मन में बड़ा दुःख है, उनको एक क्षण का चौथाई भाग सैकड़ो युग के बराबर बीतता है॥४॥ जड़ धनुष से विनती करना दुःख चिन्ता से चित्त में विक्षेप होना 'मह सञ्चारी भाव है। दो०-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि, रानत लोचन लाल । खेलत मनसिज मीन जुग, जनु बिधु मंडा' डोल ॥२५॥ प्रभु रामचन्द्रजी को देख कर फिर पृथ्वी की ओर देखती, चञ्चल नेत्र शोभित हो रहे हैं। वे ऐसे मालूम होते हैं मानो चन्द्र-मण्डल हिल रहा है, उसमें दो कामदेव मछली रूपधारी खेल रहे हों ॥२५॥ जानकीजी का बार बार मुख ऊपर नीचे करना उत्प्रेक्षा का विषय है। मुख और चन्द्रमण्डल, नेत्र और मछली परस्पर उपमेय उपमान हैं । कामदो व रूपी मछली में प्रौढोक्ति है। चन्द्रमण्डल में मछली रूपधारी कामदेव भूला नहीं भूलना , कवि की कल्पना मात्र 'अनुकविषया वस्तत्प्रक्षा अलंकार' है । प्रेम रोके नहीं रुकता ता व प्रभु की ओर निहारती है, गुरुजनो की लज्जा और पिता की प्रतिक्षा का ख्याल कर धरती की ओर देखती हैं। रति, हर्ष, लाज और विषाद भाव पल पल पर उदय और विलीन हो रहे हैं। ।