२६२ रामचरितमानस चौ०-गिरा-अलिनि मुखं पङ्कज रोकी । प्रगट न लाज-निसा अवलोकी लोचन जल रह लोचन कोना । जैसे परम कृपिन कर सोना ॥१॥ सीताजी की वाणी रूपी भ्रमरी को मुख रूपी कमल ने रोक रक्खा, वह लज्जा रूपी रात्रि को देख कर प्रकट: नहीं होती है। शास्त्र के आँसू आँख के कोने में रहे गये, (वाहर नहीं हुए) जैसे बड़े कलस का लोना (बाहर नहीं होने पाता) ॥१॥ 'सकुची ब्याकुलता बड़िजोनी । धरि धीरज प्रतीति उर आनी । तन मन बचन मार पन साँचा । रघुपति पद सरोज चित राँची ॥२॥ बड़ी व्याकुलत विचार कर सकुचा गई, फिर धीरज धर कर इदय में विश्वास ले पाई. कि यदि तन, मन और वचन से रघुनाथजी के चरण-कमलों में चित्त लगा है, यदि मेरी यह प्रतिज्ञा सच्ची है ॥२॥ तो अगवान सकल उर बासी । करिहहिँ माहिँ रघुपति के दासी॥ जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु सन्देहू ॥३॥ तो भगवान् सबब हदय में बसनेवाले हैं, मुझे रघ नाथजी की दासी बनावेंगे। जिसका जिसके ऊपर सच्चा स्नो होता है, वह उसे मिलता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ॥३॥ प्रभु तन चितइ प्रेम पन ठाना । कृपानिधान राम सब जाना । सियहि बिलोकि तके उ धनु कैसे । चितव गरुड़ लघु व्यालहि जैसे ॥४॥ अन्त में प्रभु रामचन्द्र जी की ओर देखकर प्रेम का प्रण ठान लिया, कृपानिधान रामः चन्द्रजी सब जान गये। सीमाजी को देख कर धनुष की और कैसे देखा, जैसे छोटे साँप की तरफ़ गरुड़ निहारते हैं neil जानकीजी ने प्रभु की ओर निहार कर प्रेम का प्रण ठाना कि यदि आपके चरणों में मेरी सच्ची प्रीति है तो मेरी प्रतिक्षा को श्राप पूरी कीजिए, उनके हार्दिक अभिप्राय को रामचन्द्रजी समझ कर इशारे से समाधान किया, सीताजी को देखकर धनुष को कैसे देखा जैसे छोटे साँप को गरुड़ उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं अर्थात् घचराओ नहीं धनुप को टूटा समझो। यह . 'सूचम अलंकार' है। दो०-लखन लखेउ रघुबंस-मनि, ताकेउ हर-कोदंड पुलकि गात बोडे बचन, चरनं चापि ब्रांड ॥ २५६ ॥ लक्ष्मणजी ने लखा कि रघुवंश-मणि ने शिवजी के धनुष की ओर देवा; तब वे पुलकित शरीर से धरती को पैरं से दया कर बचन बोले ॥२५॥ चौ-दिसि कुञ्जरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डाला। राम चहहि सङ्कर धनु तारा । होहु सजग सुनि आयसु मेरो ॥१॥ हे दिग्गजो, कच्छप, शेष और वाराह ! धीर धारण कर के धरती को धरो, चलायमान .