पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२

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आ और तुमसे चन्दन के लिये कहें उनके मस्तक पर तिलक लगा दिया करो तो उनमें रघुन थिजी भी आवेंगे और तुमसे चन्दन लगवावेंगे । गोस्वामीजी चन्दन लेकर रामघाट पर बैठ गये और रघुनाथजी ने यात्री के रूप में तिलक लगवाये, किन्तु गोस्वामीजी उन्हें पहचान नहीं सके। जब पीछे हनूमानजी ने परिचय दिया, तब शात हुआ कि रघुनाथजी तिलक लगवा गये । उसी समय यह दोहा कहा- चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन्ह की भीर । तुलसिदास चन्दन घिसत, तिलक देत रघुबीर । रामदर्शन होने के अनन्तर गोसाँईजी मे काशी की ओर प्रस्थान किया। दैवयोग से पत्नी-मिलाप। अँधेरा हो जाने पर कञ्चनपुर गाँव में पहुंचे और श्वसुर के दरवाजे पर ठहर गये, किन्तु रात्रि में उन्हें इस बात का निश्चय नहीं हुआ कि मैं श्वसुर के घर टिक रहा हूँ | गोस्वामी- जी को स्त्री भी वृद्धा हो चली थी । द्वार पर महात्मा को देख अतिथि सेवा के नाते उसने धरती साफ कर चौका लगा दिया और भोजनादि की सामग्री ले आई । अनन्तर पूछताछ करने से उसको मालूम हो गया कि मेरे स्वामी यही हैं । प्रातःकाल शौचस्नान से निवृत हो जब गोस्वामीजी पूजा करने लगे तब स्त्री ने कहा-महाराज ! कपूर दसाँग आदि पूजन का सामान ले आऊँ? तुलसीदासजी ने कहा-यह सब हमारी झोली में है, ले पाने की आवश्य- कता नहीं । यह सुन कर स्त्री ने अपमा परिचय देकर कहा-हवामिन् ! सेवा के लिये मुझे साथ चलने की माशा दीजिये, किन्तु गोसाँईजी ने स्त्री की यह प्रार्थना अखोनार कर दी। इस पर उसने कहा- खरिया खरी कपूर लौं, उचित न पिय तिय त्याग। कै खरिया मोहि मेलिकै, अचल करहु अनुराग ॥ यह सुन कर गोस्वामीजी के मन में बड़ा सकोच हुआ और प्रसन्नता पूर्वक झाली की सब चीज़ ब्राह्मणों को बाँट दी और वहाँ से चल कर काशी आये । काशी में बासस्थान । गृह त्याग कर विरक होने पर गोसाँईजी चित्रकूट, अयोध्या और काशीपुरी में अधिकांश , निवास करते थे। चित्रकूट में पर्णकुटी के समीप उनकी गुफा अबतक वर्तमान है और अयो. ध्यापुरी में मनीराम की छावनी के अन्तर्गत उनके ठहरने का स्थान कहा जाता है। काशी में उन्होंने अधिक काल पर्यन्त निवास किया था और पाँच स्थान उनके प्रसिद्ध हैं । (१) हनुमानफाटक, (२) प्रहाद्घाट, (३) सङ्कटमोचन, (४) गोपालमन्दिर, (५) अस्सीघाट । (१)—पहले हनुमानफाटक में कुछ दिन रहे थे, परन्तु मुसलमानों के उपद्रव से उन्हें वह स्थान त्याग देना पड़ा। (२)-प्रह्लाघाट पर पं० गङ्गाराम ज्योतिषी के घर ठहरते थे। कहा जाता है कि पं० गा. राम गहरवार क्षत्रिय राजघाट के राजा ( जो वतमान में कोट रूप हो गया है) के ज्योतिषी थे। वे बड़े ही सज्जन और तुलसीदासजो के भक थे । गोस्वामाजी उन पर स्नेह रखते थे। रामाना-प्रश्ना- वली में प्रथम सर्ग के अन्त में उन्होंने श्लेष से गकाराम का नाम लिया है। यथा-