पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२१

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. रामचरित-मानस । २६४ समाधा-:--अमृता का तालाब प्यास के दुःख से मरे हुए को जिला देगा, परन्तु प्यास फी भीषण यन्त्रणा से तर प तड़प कर जो उसके प्राण निकले हैं, उस पीड़ा को नहीं भुला सकता । दूसरे-वथा अमृदा और जल दोनों को कहते हैं, यहाँ सुधा शब्द से जल का ग्रहण है, अमृत का नहीं । कोकि रिग्ना जल के प्राण त्यागे हुए को सुधा तडाग मिले तो क्या हो सकता है? यारिके संयोग से 'सुवा शब्द में एक मात्र जल की अभिधा है। का बरषा जब कृषी सुखाने । समय चुके पुनि का पछिताने । अस जिय जानि जानकी देखी । प्रफुपुलके लखि प्रीति बिसेखी ॥२॥ जव खेती सूख गई तय वर्षा क्या ? समय पर चूकने से फिर पछताना क्या ? प्रभु राम- चन्द्रजी ने ऐसा मन में विचार और जानकीजी को देख कर उनकी बड़ी प्रीति लन कर पुलकित हुए 8 चौपाई के पूर्वार्द्ध में जो प्रश्न किया है. वे ही शब्द 'सूखना और चूकना' उत्तर के भी हैं । यह चिनोत्तर अलंकाए है। सीताजी को दुखो देख कर रामचन्द्रजी का मन में तर्क वितर्क करना 'षितर्क सञ्चारी भाव' है। गुरुहि प्रनाम मनाह मन कोन्हा । अतिलाघव उठाइ धनु लीन्हा । दमकेउ दाभिनि जिगिर जब लयऊ। पुनिधनु नम मंडल सम भयऊ ॥३॥ गुरूजी को मन ही आम प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया । जब धनुंप को वेदी पर से उठा लिया तब वह बिजली की तरह चमका, फिर आकाश में मगह- लाकार हो गया ॥३॥ लेत चढ़ावत खेचत गाढ़े । काहु न लखा देख सच ठाढ़े ॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा । भरेउ भुवन धुनि घोर कठोरा nea धनुष के लेते चढ़ाते और खींचते सय खड़े देख रहे थे, पर कठिनता किसी ने नहीं लखी । उसी क्षण में रोमःचन्द्रजी ने धनुष को तोड़ दिया, उसकी भयङ्कर कठोर ध्वनि लोको में भर गई ॥४॥ लेना, चढ़ाना और बैचना क्रियाएँ कई एक हैं, पर कर्ता अकेले रामचन्द्रजी हैं। यह 'कारकदीपक अलंकार' है हरिगीतिका-छन्द । भरे भुवन घोर कठोर रव रबि, बाजि तजि मारग चले । चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि, कोल कूरम कलमले । सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें, सकल बिकल बिचारहौं ।. कोदंड खंडेउ राम तुलसी, जयति बचन उचारही ॥१६॥ लोक में धनुप टूटने का भीपण कठार शब्द छा गया, सूर्य के घोड़े रास्ता छोड़ कर चले । दिशा के हाधी चिग्घाड़ते हैं। धरती हिल गई, शेष, वाराह और कच्छप दाब में पड़ 1