पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड ! २६९ सोहति सीय राम के जारी । छबि सिङ्गार मनहुँ इक ठोरी । सखी कहहिं प्रभु-पद गहु सीता । करति न चरन परस अति भीता ॥४॥ सीता और रामचन्द्रजी की जोड़ी शोभायमान है, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों छवि और श्ङ्गार एक स्थान में इकट्ठहुए हो । सखियाँ कहती हैं-हे सीते ! स्वामी के चरणों पर पड़ो, पर जानकीजी अत्यन्त भयले पाँव नहीं छूती हैं ॥४॥ यहाँ अति भीता शब्द में गुणीभूत व्यङ्ग है कि मैं हाथों में रत्न जड़ित अंगूठियाँ पहने हूँ वे पत्थर ही है, कहीं स्त्री न हो जॉय । दो०-गौतम-तिय गति सुरति करि, नहिँ परसति पग पानि । मन बिहँसे रघुबंस - मनि, प्रीति अलौकिक जानि ॥२६॥ गौतम की स्त्री (अहल्या) की गति याद करके हाथों से पाँव नहीं छूती हैं। रघुवंश- मणि इस असाधारण प्रीति को जान कर मन में हसे ॥२६॥ गौतमी की गति स्मरण कर हाथों से पाँव नहीं छूती हैं, इस वाक्य में 'अस्फुट गुणीभूत व्या' है कि इन्हीं चरणों के स्पर्श से शिला स्त्री हो गई; तर मेरे हाथ और सिर के भूषणों में जो रत हैं यदि पाँव छू जाने पर वे सब स्त्री हुए तो बहु भार्या होने से स्वामी की प्रीति मुझ पर न्यून रहेगी । यह व्यङ्ग कठिनता से देख पड़ती है; किन्तु जान लेने से बहुत ही सरल है। 'अलौकिक' शब्द में लक्षणामूलक गूढ़ व्यङ्ग है कि पाँव पड़ते ही यहाँ से चल देना पड़ेगा, फिर स्वामी के दर्शन का वियोग होगा। सीताजी के हार्दिक अभिप्राय को समझ कर रामचन्द्रजी मन में हँसे, प्रत्यक्ष इसलिए नहीं हँसे कि लोक मर्यादा भङ्ग हो जाती। अथवा यह सोच कर हँसे कि ये इतनी भोली हो गई है कि अपनी और हमारी प्राचीन प्रीति को भुला कर व्यर्थ ही भ्रम में पड़ी हैं। चौ०-तब सिय देखि भूप अभिलाखे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे । उठि उठि पहिरि सनाह अभागे । जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥१॥ तब सीताजी को देख कर राजा लोग उन्हें पाने के आकांक्षी हुए, क्रूर, कपूत और मूर्ख मन में क्रोधित हुए। वे अभागे कवच पहन कर जहाँ तहाँ से उठ उठ कर गोल बजाने लगे ॥१॥ लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ । धरि बाँधहु नुप-बालक दोज । तारे धनुष चाँड नहिँ. सरई। जीवतं हमहि कुँअरि को बरई ॥२॥ कोई कहता है सीता को छुड़ा लो और दोनों राजपुत्रों को पकड़ कर वाँध लो। धनुष तोड़ने से लालसा पूरी न होगी, हमारे जीते जी कुमारी को कौन ब्याहेगा ? ॥२॥ जौँ विदेह कछु करइ सहाई । जीतह समर सहित दोउ भाई॥ साधु-भूप बोले सुनि बानी । राज-समाजहि लाज लजानी ॥३॥ यदि विदेह कुछ सहायता करे तो दोनों भाइयों (सीरध्वज, कुशध्वज) के सहित इन्हें. युद्ध में जीत लो। सज्जन राजा यह सुन कर बोले कि इस राजमण्डला को देख कर लाज भी लजो .. .