पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२७

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२७० रामचरित-मानस । लाज लजानी से 'तुम लोग निर्लज्ज हो' यह प्रकट होना 'वाच्यसिदा गुणीभूत यल प्रताप बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि सङ्ग सिधाई ॥ सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई । असि बुधि तो विधि मुँह ममि लाई ४ वल, प्रताप, वीरता और वड़ाई को मर्यादा तो धनुप के साथ ही चली गई। वहीं शरतो या कि अब कहीं पा गये हो ऐसी बुद्धि है तमी ब्रह्मा ने मुख में कालिख लगाया है ॥४॥ बल, प्रताप, चीरता और बड़ाई की प्रतिष्ठा धनुष के साथ ही चली गई, यह मनोरजन वर्णन 'सहोक्ति अलंकार' है। काकु से शरता का चाध होकर 'कापुरुषता' पजित होना गुणीभूत व्यङ्ग है। दो०-देखहु रामहि नयन भरि, तजि इरषा मद कोहु । लखन-रोष पावक प्रबल, जानि सलभ जनि होहु ॥२६॥ ईर्ण, धमएड और क्रोध छोड़ कर रामचन्द्रजी को आँख भर देखो । लक्ष्मणजी का क्रोध प्रचंड अग्नि रूप है, जान बूझ कर पाँखी मत हो ॥२६॥ लक्ष्मणजी का कोप पहले देख चुके हैं इससे धर्जन करते हैं कि यह डीग हाँकना एक न चलेगा, भस्मीभूत हो जाओगे। पं० रामवकश पाड़े को प्रति में 'मद मोह' पाठ है। चौ०-वैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि सस चहइ नाग-अरिभागू। जिमि वह कुसल अकारन कोही । सब सम्पदा चहइ सिव-द्रोही ॥१॥ गण्डका साग जैसे कौनचाहे और सिंहका भाग जैसे खरहा चाहे, बेमतलब क्रोधकरने वाला जैसे कल्याण चाहे और शिवजीका विरोधी जिस तरह सब लम्पति को इच्छा करे ॥१॥ लोभी लोलुप कीरति 'चहई । अकलङ्कता कि कामी लहई । हरि-पद-विमुख सुगति जिमि चाहा । तस तुम्हार लोलच नग्नाहा ॥२॥ कजस पर लालची कीर्चि चाहे, क्या व्यभिचारी निकलता पा सकता है ? (कदापि नहीं ) भगवान के चरणों से विमुखी जैसे सुन्दर गति की चाहना करे, हे नरेश्वरो ! तुम लोगों का लालच ऐसा ही है ॥२॥ लोभी और लोलुप पर्यायवाची शब्द हैं, इससे पुनरुक्ति सा प्रतीत होता है, परन्तु पुनरुकि नहीं है क्योंकि एक कृपण का योधक है और दूसरा लालची का, यह पुनरुक्तिवदा- भास अलंकार' है । गुटका में 'लोभ लोलुप फल कीरति वहई' पाठ है। कोलाहल सुनि सीय सकानी । सखी लेवाइ गई जहँ रानी,॥ राम सुभाय चले गुरु पाहाँ । सिय-सनेह बरनत मन माहीं ॥३॥ हल्लागुल्ला सुन कर लीताजी डरी, तब सखियाँ उन्हें जहाँ रानी हैं वहाँ लिवा ले गई। रामचन्द्रजी स्वभाव से गुरु के पास चले और मन में सीताजी का स्नेह वखानते जाते हैं ॥३॥ राजाओं का शोर गुल सुनकर जानकीजी का डरना 'शा सहारो भाष' है।