पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२९

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२७२ शमरित-मानस । वृषभ कन्ध उर-बाहु बिलासा । चारु जनेउ मोल मृगछाला ॥ कटि मुनि-बसन तून दुइ बाँधे । धनु-सर-कर कुठार-कल-काँधे ॥४॥ चैल के समान ऊँचे कन्धे, छाती और भुजाएँ विशाल है सुन्दर जनेऊ और माला पहने, मृगचर्म लिये है । कमर में मुनियों के वस्त्र और दो तरकस वाँधे हैं, हाथ में धनुष-बाण तथा कन्धे पर सुन्दर कुल्हाड़ा रखे हैं ॥४॥ दो०--सान्त बेष करनी कठिन, बरनि न जाइ सरूप । धरि मुनि तनु जनु बीररस, आयउ जहँ सब भूप ॥२८॥ शान्त वेष और कठोर करनीवाले हैं, जिनका स्वरूप वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसा मालूम होता है मानों वीररस, मुनिका शरीर धारण करके जहाँ सबराजा है-आया हो ॥२६॥ परशुरामजी शुरवीर के वेष में है; किन्तु वीररस शरारी नहीं होता, यह कधि की कल्पना मात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है । ऋचीक मुनि के पुत्र जमदग्निजी हैं, इनका विवाह प्रसेनजित् राजा को कन्या रेणुका से हुआ था। उसके गर्भ से वमुभान आदि आठ पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे परशुरामजी हैं। ऋचीक मुमि के श्राशीर्वाद से ये ग्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय धर्मी शूरवीर और युद्ध प्रिय हुए उन्होंने पिता की हत्या करनेवाले सहसवाहु सरीखे उद्दण्ड योद्धा का वाहु-छेदन किया था। ये चौवीस अवतारों में से विष्णु के एक अवतार माने जाते हैं । सभा की प्रति मैं 'सन्त वेप पाठ है। चौ०-देखत भूगुपति मेष कराला । उठे सकल भय-विकल भुआला ॥ पितु समेत कहि कहि निज नामा । लगे करन सब दंड-प्रनामा ॥१॥ परशुरामजी के भयजर वेष को देखते ही सम्पूर्ण राजा भय से विफल हो उठ बड़े हुए। पिता के सहित अपना अपना नाम कह कर सव दण्ड-प्रणाम करने लगे ॥१॥ भय के कारण राजाओं को सहसा चिच-भ्रम होना 'श्रावेग सञ्चारीभाव है। जेहि सुभाय चितवहिँ हित जानी । सो जानड़ जनु आयु खुटानी ॥ जनक बहोरि आइ सिर नावा । सीय बालाइ प्रनाम करावा ॥२॥ जिसको स्वाभाविक हित जान कर देखते हैं, उसको ऐसा मालुम होता है मानों आयुष्य समाप्त हो गई हो। फिर जनकजी ने श्री कर सिर नवाया और सीताजी को बुला कर प्रणाम कराया ॥२॥ जिसे अच्छी निगाह से देखते हैं, उसकी आयु खोटाना प्रसिद्ध आधार है। इस अहेतु को हेतु ठहराना 'मसिद्धविषया हेतूस्प्रेक्षा अलंकार है । आसिष दीन्हि सखी हरषानी । निज समाज लइ गई सयानी ॥ बिस्वामित्र मिले पुनि आई। पद-सरोज मेले दोउ भाई ॥३॥ भाशीर्वाद दिया, चतुर सस्त्रियाँ प्रसन्न हो कर अपनी सरडली में ले गई। फिर विश्वा- मित्रजी आ कर मिले और दोनों भाइयों को कमल-चरणों में प्रणाम कराया ॥३॥ ।